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________________ (२५) पूर्व के समान इसके साक्षी रूप दाने से शलाक प्याला भर जाय तब इसे भी पहले के समान बारम्बार खाली करके इसके साक्षी दानों द्वारा तीसरा प्याला भरना। इसे पूर्वोक्त कहे अनुसार खाली करते इसके साक्षी दानों से महाशलाक प्याला भी शिखर तक भर देना। (१५५-१५६) यथोत्तरमथो साक्षि स्थानाऽभावादि मे समे । भृताः स्थिता दिक्क नीनां क्रीडा समुद्र गका इव ॥१५७॥ यत्रान्ति माया वेलायां रिक्तीभूतोऽनव स्थितः । तावन्मानस्तदास्त्येष त्रयस्त्वन्ये यथोदिताः ॥१५८॥ अर्थतांश्चतुरः पल्यान् सावकाशे स्थले क्वचित् । उद्वम्य तत्सर्वपाणां निचयंश्चयेद्धिया ॥१५६॥ ततश्च जम्बूद्वीपादि द्वीपवार्धिषु सर्षपान् । उच्चित्य पूर्वनिक्षिप्तांस्तत्रैव निचये क्षिपेत् ॥१६०॥ एक सर्षपरूपेण न्यूनोऽयं निचयोऽखिलः । भवेदुत्कृष्ट संख्यातमानमित्युदितं जिनैः ॥१६१॥ इस तरह उत्तरोत्तर साक्षी दानों को डालने का स्थान न होने से चारों प्याले भरे हुए रहें। ये सर्व मानो दिग् कंन्याओं के खेलने के लिए डिब्बे हों ऐसे सुन्दर शोभते हैं । उस समय में अनवस्थित प्याले का माप आखिर समय में खाली हो तब जितना था उतना रहता है। अन्य तीन का माप पूर्व समान होता है । अब इन चारों प्यालों को किसी खाली स्थान पर खाली करना- अर्थात् सरसों का एक ढेर करना और फिर जम्बूद्वीप आदि पूर्व में फेंके दोनों को भी एकत्रित करके उस ढेर में डालना । फिर इस समस्त ढेर में से एक दाना कम करना। इस एक दाना कम वाले ढेर का मान 'उत्कृष्ट संख्यात' कहलाता है। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् ने कहा है। (१५७ से १६१) एतदुष्कृष्ट संख्यातमेक रूपेण संयुतम् । भवेत्परीत्ता संख्यातं जघन्यमिति तद्विदः ॥१६२॥ ज्येष्ठात्परीत्ता संख्यातादर्वाग् जघन्यतः परम् । मध्यं परीत्ता संख्यातं भवेदिति जिनैः स्मृतम् ॥१६३॥ जघन्य युक्ता संख्यातमेक रूप विवर्जितम् । भवेत्यरीत्ता संख्यातमुत्कृष्टमिति तद्विदः ॥१६४॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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