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________________ (२३) अत्रेदं ज्ञेयम् - आद्येऽनवस्थिते रिक्तोभूते साक्षी न मुच्यते । सर्वैः पल्यैः समानत्वान्नानव स्थित तास्य तत् ॥१४०॥ यास्याऽनव स्थितेत्याहा ज्ञेया योग्यतया तु सा । घृतयोग्यो घटो यद्वद् घृतकुभ्भोऽभिधीयते ॥१४१॥ साक्षी च सर्षपकणो मुच्यते यः शलाकके । अनवस्थित सत्कं त जगुरेके परे परम ॥१४२।। पूर्णीभूते शलाकेऽथ स्थाप्यस्तत्राऽनव स्थितः । क मागत द्वीप वार्धिसमानः सर्षपैर्भूतः ॥१४३॥ अथोत्पाट चशलाकाख्यं प्राग्वत्तस्य कणान्क्षिपेत। अनवस्थान्तिम कणा कान्त द्वीपाम्बुधेः पुरः ॥१४४॥ इस तरह करते दूसरे समय भी जब वह प्याला खाली हो जाय तब दूसरे 'शलाका' नामक प्याले में सरसों का एक दाना पहचान या साक्षी रूप में डालना। इस तरह वह अनवस्थित प्याला बारम्बार भरते और खाली होते, शलाका प्याला भी साक्षी रूप दानों द्वारा शिखर चढ़ाकर इतना भर जाय तब पुन: अनुक्रम से द्वीप अथवा समुद्र समान सरसों भरना और अनवस्थित प्याला स्थापना करना, फिर 'शलाक प्याले' को उठाकर इसके दाने को अनवस्थित प्याले के अन्तिम दाने वाले द्वीप अथवा समुद्र से आगे बढ़कर फेंकना, इस तरह करते हुए शलाक प्याला भी खाली होता है (१३८ से १४४) रिक्ती भूते शलाकेऽथ पल्ये प्रतिशलाकके । क्षिप्यते सर्षपस्तस्य साक्षीभूतस्तृतीयके ॥१४५॥ • अथ तंत्र स्थितं पूर्ण तं गृहीत्वाऽनव स्थितम् । शलाकान्त्य कणाक्रान्तादग्रेप्राग्वत्कणाक्षिपेत्॥१४६॥ पूर्यमाणै रिच्य मानैर्भूयोभूयोऽनव स्थितैः । पुनः शलाको भ्रियते प्राग्वत्तथानव स्थितः ॥१४७॥ प्राग्वत् शलाकमुत्पाट्य परतो द्वीपवार्धिषु । रिक्ती कृत्य च तत्साक्षी स्थाप्यः प्रति शलाकके ॥१४८॥ एवं प्रति शलाकेऽपि स शिखं सम्भते सति । अनवस्थशलाकाख्यौ स्वयमेव भृतौ स्थितौ ।१४६॥ शलाक साक्षिणः स्थानाभावात्स रिच्यते कथम् । आद्यस्यापि तद् भावात् कथं सोऽपि हि रिच्यते ॥१५०॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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