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________________ (५०२) गुण स्थानानि चत्वारि योगश्चैका दशोदिताः । औदारिकाहारकाख्य तन्मिश्रांश्च बिनाखिला ॥६४॥ इति द्वार द्वयम् ॥३०॥३१॥ देवों को गुण स्थान चार होते हैं और आहारक, औदारिक, औदारिक मिश्र, आहारक मिश्र- इन चार के अलावा शेष ११ सर्व योग होते हैं। (६४) ये दो द्वार हैं। (३० से ३१) प्रतरासंख्य भागस्थासंख्येय श्रेणि वर्त्तिभिः । नभः प्रदेशैः प्रमिता: प्रोक्ताः समान्यतः सुरा ॥६५॥ अब इनके मान-माप के विषय में कहते हैं। देवों की संख्या सामान्यतः प्रतर के असंख्यवें भाग में रही असंख्य श्रेणियों में रहे आकाश के प्रदेश समान है। (६५) क्षेत्र पल्योपमासंख्य भागस्थाभ्रांश संमिताः । देवा अनुत्तरोत्पन्नाः संख्येयास्तत्र पंचमे ॥६६॥ अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए देव क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में रहे आकाश प्रदेश जितने हैं, उसमें भी पांचवें में संख्यात हैं। (६६) वृहत्तर क्षेत्रपल्यासंख्यांशाभ्रांश संमिताः । भवन्त्यथोपरितन गैवेयक त्रिकामराः, ॥७॥ तथा ऊपर के तीन ग्रैवेयक के देव क्षेत्रः पल्योपम के बृहत् असंख्यातवें भाग में रहे आकाश प्रदेश के समान हैं। (६७) . . मध्यमेऽधस्तनेऽप्येवं त्रिके कल्पेऽच्युतेऽपि च । आरणे प्राणते चैवानतेऽपीयन्त एव ते ॥६॥ किन्तु पल्यासंख्य भागो वृहत्तरो यथोत्तरम् । एक मानमित्तेष्वेवं स्यात् परेष्वपि भावना ॥६६॥ तथा ग्रैवेयक के मध्यम त्रिक और नीचे के त्रिक में एवं अच्युत, आरण, प्राणत तथा आनंत देवलोक में भी उतने ही देव हैं, परन्तु वहां षल्योपम के असंख्यवें भाग जो उत्तरोत्तर विशेष से विशेष बड़ा गिनना है। समान प्रमाण वाले अन्य देवलोक में इसी प्रकार ही भावना समझ लेनी चाहिए । (६८-६६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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