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________________ (५०३) सहस्रार महाशुक लांतक ब्रह्मवासिनः । माहेन्द्र सनत्कुमार देवाः प्रत्येकमीरिताः ॥१०॥ घनीकृतस्य लोकस्य श्रेस्य संख्यांश वर्तिभिः । नभः प्रदेशैः प्रमिता विशेषोऽत्रापि पूर्ववत् ॥१०१॥ युग्मं । तथा सहस्रार, महाशुक्र, लांतक, ब्रह्म, माहेन्द्र और सनत्कुमार- इन प्रत्येक देवलोक में रहे देवों की संख्या घनकृत लोक की श्रेणि के असंख्यातवें भाग में रहते आकाश प्रदेश जितनी है। यहां पर भी जो विशेष पूर्व में कहा है उसके अनुसार समझ लेना। (१००-१०१) अंगुल प्रमित क्षेत्र प्रदेश राशि संगते । तृतीय वर्ग मूलघ्ने द्वितीय वर्ग मूलके ॥१०२॥ यावान् प्रदेश राशिः स्यादेक प्रादेशिकीष्वथ । श्रेणीषु तावन्मानासु लोकस्यास्य घनात्मतः ॥१०३॥ नभः प्रदेशा यावन्तस्तावानीशान नाकगः । देव देवी समुदायो निर्दिष्टः श्रुत पारगैः ॥१०४॥ त्रिविशेषकम् । . : एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र प्रदेश की राशि के और तीसरे वर्गमूल से गुणा करते, दूसरे वर्गमूल में जितनी प्रदेश राशि होती है उतने प्रमाण वाली एक प्रदेश श्रेणियों में घन रूप करने से लोकाकाश के जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने ईशान देवलोक में रहे देव देवियों की संख्या है। ऐसा श्रुत के पारगमियों ने कहा है। (१०२ से १०४) त्रयस्त्रिंशत्तमोंशोऽस्य किंचिदूनश्चयो भवेत् । 'ईशान देवास्तावन्तः केवलाः कथिताः श्रुते ॥१०॥ इसमें केवल तैंतीसवें भाग में ही ईशान देवलोक के देव होते हैं, इस प्रकार शास्त्र में कहा है। (१०५) एवं च...... सौधर्म भवनाधीशव्यन्तरज्योतिषामपि। . भाव्या स्वस्वसमुदाय त्रयस्त्रिंशांशमानता ॥१०६॥ इसी ही तरह सौधर्म देवलोक भवनपति, व्यंतर और ज्योतिपी देवो की संख्या इनके समुदाय से तेत्तीसवें भाग में समझना (१०६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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