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एषां स्युर्दष्टयः तिस्त्र आद्यंज्ञानत्रयं भवेत् । सम्यग्दृशां परेषां तु स्याद ज्ञानत्रयं ध्रुवम् ॥८६॥
, इति द्वार द्वयम् ॥२५-२६॥ दर्शनत्रयमाद्यं स्यादेषां सम्यक्त्व शालिनाम् । दर्शनद्वयमन्येषामुपयोगो द्विधा ततः ॥६॥ उपयोगा षडेतेषां ज्ञान दर्शन योस्त्रयम् । सम्यग्दृशां परेषां तु त्र्यज्ञानी द्वे च दर्शने ॥११॥
इति द्वार द्वयम् ॥२७-२८॥ इनको दृष्टि तीन होती हैं। जो समकित दृष्टि वाला है उसको प्रथम तीन ज्ञान होते हैं । (८६) .... ये दो द्वार हैं । (२५-२६) और तीन दर्शन होते हैं जबकि इसके अलावा अन्य को तीन अज्ञान और दो दर्शन होते हैं । इस तरह ज्ञान और दर्शन दोनों होने से इनका उपयोग भी साकार और निराकार दोनों प्रकार का है तथा समकित दृष्टि वाले को तीन ज्ञान और तीन दर्शन मिलाकर छ: उपयोग होते हैं जबकि इसके अलावा अन्य को तीन अज्ञान तथा दो दर्शन मिलकर पांच उपयोग होते हैं। (६० से ६१) ... ये दो द्वार हैं । (२७-२८) ... एतेषाभोज आहारो लोमाहारोऽपि संभवेत् । . . . नस्यात्कावलिकः स्यातु मनोभक्षण लक्षण ॥६२॥ - अब इनके आहार के विषय में कहते हैं । देवों को ओज और लोभ- ये दो आहार होते हैं, कावलिक आहार नहीं होता है। मन से प्राशन करने रूप कावलिक आहार होता है। (६२)
अन्तरं पुनरे तस्य चतुर्थ भक्त संमितम् । जघन्यमन्यत्त्वब्दानां त्रयस्त्रिशत्सहस्रका ॥६॥
___ इति आहारः ॥२६॥ इस आहार का जघन्य अन्तर चौथ भक्त प्रमाण है और उत्कृष्ट तो तैंतीस हजार वर्ष का होता है। (६२)
यह आहार द्वार है। (२६)