SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 538
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (५०१) एषां स्युर्दष्टयः तिस्त्र आद्यंज्ञानत्रयं भवेत् । सम्यग्दृशां परेषां तु स्याद ज्ञानत्रयं ध्रुवम् ॥८६॥ , इति द्वार द्वयम् ॥२५-२६॥ दर्शनत्रयमाद्यं स्यादेषां सम्यक्त्व शालिनाम् । दर्शनद्वयमन्येषामुपयोगो द्विधा ततः ॥६॥ उपयोगा षडेतेषां ज्ञान दर्शन योस्त्रयम् । सम्यग्दृशां परेषां तु त्र्यज्ञानी द्वे च दर्शने ॥११॥ इति द्वार द्वयम् ॥२७-२८॥ इनको दृष्टि तीन होती हैं। जो समकित दृष्टि वाला है उसको प्रथम तीन ज्ञान होते हैं । (८६) .... ये दो द्वार हैं । (२५-२६) और तीन दर्शन होते हैं जबकि इसके अलावा अन्य को तीन अज्ञान और दो दर्शन होते हैं । इस तरह ज्ञान और दर्शन दोनों होने से इनका उपयोग भी साकार और निराकार दोनों प्रकार का है तथा समकित दृष्टि वाले को तीन ज्ञान और तीन दर्शन मिलाकर छ: उपयोग होते हैं जबकि इसके अलावा अन्य को तीन अज्ञान तथा दो दर्शन मिलकर पांच उपयोग होते हैं। (६० से ६१) ... ये दो द्वार हैं । (२७-२८) ... एतेषाभोज आहारो लोमाहारोऽपि संभवेत् । . . . नस्यात्कावलिकः स्यातु मनोभक्षण लक्षण ॥६२॥ - अब इनके आहार के विषय में कहते हैं । देवों को ओज और लोभ- ये दो आहार होते हैं, कावलिक आहार नहीं होता है। मन से प्राशन करने रूप कावलिक आहार होता है। (६२) अन्तरं पुनरे तस्य चतुर्थ भक्त संमितम् । जघन्यमन्यत्त्वब्दानां त्रयस्त्रिशत्सहस्रका ॥६॥ ___ इति आहारः ॥२६॥ इस आहार का जघन्य अन्तर चौथ भक्त प्रमाण है और उत्कृष्ट तो तैंतीस हजार वर्ष का होता है। (६२) यह आहार द्वार है। (२६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy