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________________ (४४५) अध्यर्धानि द्वादशैव भवन्ति जलचारिणाम् । खचराणां द्वादशाथ चतुष्पदांगिनां दश ॥११५॥ दशैवोरगजीवानां भुजगानां नवेति च । एषां सार्ध त्रिपंचाशल्लक्षाणि कुल कोटयः ॥११६॥ इति कुल संख्या ॥५॥ अब कुल संख्या के विषय में कहते हैं- श्री तीर्थंकर परमात्मा ने तिर्यंच, पंचेन्द्रिय, संमूर्छिम अथवा गर्भज के भेद की विवक्षा कही है और वह इस प्रकारजलचर जीव की साढ़े बारह लाख, खेचर जीव की बारह लाख, चतुष्पद जीव की दस लाख, उरपरिसर्प की दस लाख और भुजपरिसर्प जीव की नौ लाख। इस तरह कुल मिलाकर साढ़े तरेपन लाख होती है। (११४ से ११६) - यह कुल संख्या द्वार है । (५) विवृत्ता योनिरेतेषां संमूर्छिम शरीरिणाम् । गर्भजानां भवत्येषा योनिर्विवृत्त संवृत्ता ॥११७॥ संमर्छितानां त्रैधेयं सचित्ताचित मिश्रका । गर्भजानां तु मित्रैव यदेषां गर्भ सम्भवे ॥११८॥ जीवात्म सात्कृतत्वेन सचिते शुक्रशोणिते । . तत्रोपयुज्यमानाः स्युः अचित्ताः पुद्गलाः परे ॥११६॥ युग्मं । 'संमूर्छि मानां त्रिविधा शीतोष्णमिश्र भेदतः। गर्भजाना तिरश्चां तु भवेन्मित्रैव केवलम् ॥१२०॥ .. . इति योनि संवृतत्वादि ॥६॥ अब योनि का स्वरूप कहते हैं- इनमें जो संमूर्छिम हैं उनकी 'विवृत' योनि है और जो गर्भज हैं उनकी 'विवृत्त संवृत' योनि है। तथा संमूर्छिम की १- सचित, २- अचित और ३- सचिताचित- इस प्रकार तीन प्रकार की योनि हैं और गर्भज की केवल सचिताचित योनि होती है। क्योंकि जब इनको गर्भ की संभावना होती है तब शुक्र व शोणित सचित होता है क्योंकि इसमें से जीव उत्पन्न होता है और इसमें उपयोग में आते अन्य पुद्गल अचित होते हैं तथा संमूर्छिम की शीत, उष्ण और. शीतोष्ण- ये तीन प्रकार की योनि होती हैं और गर्भज की केवल शीतोष्ण योनि होती है। (११७ से १२०)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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