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________________ ( ४४६ ) यह योनि संवृत द्वार है। (६) पूर्व कोटिमितोत्कृष्टा स्थितिः स्याज्जलचारिणाम् । चतुष्पदानां चतुरशीतिवर्ष सहस्रका ॥१२१॥ वत्सराणां त्रिपंचाशत् सहस्राण्युरगांगिनाम् । भुजगानां द्विचत्वारिशत्सहस्त्रा स्थितिर्मता ॥ १२२ ॥ अब इनकी भव स्थिति कहते हैं- इन तिर्यंच पंचेन्द्रिय में जो जलचर जीव हैं उनकी भवस्थिति उत्कृष्टत: पूर्व कोटि (करोड़) है। चतुष्पद की चौरासी हजार वर्ष है। उर परिसर्प की तरेपन हजार वर्ष, भुज परिसर्प की बयालीस हजार वर्ष और खेचर की बहत्तर हजार वर्ष की है। यह सब स्थिति उत्कृष्ट रूप में समझना और सब संमूर्छिम की जानना। ( १२१ से १२३ ) गर्भजानां पूर्व कोटिरुत्कृष्टा जलचारिणाम् । चतुष्पदानामुत्कृष्टा स्थितिः पल्योपमत्रयम् ॥ १२४॥ भुजोरः परिसर्पाणां पूर्व कोटिः स्थितिर्गुरुः । खचराणां च पल्यस्या संख्येयांशो गुरु स्थितिः ॥ १२५ ॥ और तिर्यंच पंचेन्द्रिय में जो गर्भज जलचर जीव हैं उनकी उत्कृष्ट भवस्थिति. पूर्व कोटि की है, चतुष्पद की तीन पल्योपम की है । उस तरह भुजपरिसर्प तथा उरपरिसर्प की पूर्व कोटि की है और खेचर की पल्योपम के असंख्यवें अंश के समान होती है। (१२४-१२५) गर्भजानां तिरश्चां स्यादोघेनोत्कर्षत: स्थितिः । पल्यत्रयं समेषामप्य वरांतर्मुहूर्त्तकम् ॥१२६॥ इति भव स्थिति ॥७॥ गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंच की ओघ से उत्कृष्ट तीन पल्योपम की भवस्थिति है। सारे तिर्यंच पंचेन्द्रिय की भव स्थिति जघन्यतः तो केवल अन्तर्मुहूर्त्त ही है। (१२६) यह भव स्थिति द्वार है । (७) संमूर्छिमाणां पंचाक्ष तिरश्चां कायसंस्थितिः । सप्तकं पूर्वकोटीनां तदेवं परिभाव्यते ॥१२७॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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