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अब स्थान के सम्बन्ध में कहते हैं- इनके स्थान विकलेन्द्रिय जीवों को जैसे है, उस स्थान विशेष से बुद्धिमान को स्वयं समझ लेना चाहिए । (१०६)
यह स्थान नामक दूसरा द्वार है। पंच पर्याप्तयोऽमीषां पर्याप्ति मानसीं बिना ।
संमूर्छि मानामन्येषां पुनरेता भवति षट् ॥११०॥ . · अब पर्याप्ति के विषय में कहते हैं । इन जीवों में जो संमूर्छिम हैं उनको मन पर्याप्ति के अलावा पांच पर्याप्ति होती हैं और जो गर्भज हैं उनको छः पर्याप्ति हैं । (११०)
असंजिनोऽमनस्का यत्प्रवर्त्तन्तेऽशमादिषु । . आहार संज्ञा सा ज्ञेया पर्याप्तिर्न तु मानसी ॥१११॥ अथवाल्पं मनोद्रव्यं वर्ततेऽसंजिनामपि । . प्रवर्तन्ते निवर्तन्ते तेऽपीष्टानिष्ट योस्ततः ॥११२॥ संमूर्छिमानां प्राणांः स्युर्नवान्येषां च ते दश ॥
इति पर्याप्तयः ॥३॥ संज्ञा अथवा मन एक वस्तु न होने पर भी जिनकी आहार आदि में प्रवृत्ति है उनकी आहार संज्ञा का कारण समझना। यह कोई मनः पर्याप्ति नहीं कहलाती है अथवा अंसज्ञी को भी अल्प मनोद्रव्य होता है और इसके कारण इनको इष्ट कर्म में प्रवृत्ति होती है और अनिष्ट कार्य से पीछे हटता है और संमूर्छिम जीव के नौ प्राण होते हैं और गर्भज के दस प्राण होते हैं। (१११-११२) ।
यह पर्याप्ति द्वार है । (३) लक्षाश्चतस्त्रो योनीनामेषां सामान्यतः स्मृताः ॥१३॥
इति योनि संख्याः ॥४॥ तिर्यंच पंचेन्द्रिय की योनि संख्या साधारण रूप में चार लाख गिनी जाती है- (११३)
यह योनि संख्या द्वार है (४) एवं संमूर्छि मगर्भोद्भव भेदा विवक्षया । लक्षाणि कुल कोटी नामेषामित्याहुरीश्वराः ॥११४॥