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________________ (४००) . स्थितिरुत्कर्षतश्चैक भवे प्रौक्ता क्षमाङ्गिनाम् । दाविशन्ति सहस्राब्दलक्षणा परमर्षिभिः ॥२४३॥ अष्टभिर्गुणने चास्या भवत्येव यथोदितम् । षट् सप्तति वर्ष सहस्राधिकं वर्ष लक्षकम् ॥२४४॥ और एक भव के पृथ्वीकाय जीवों की कायस्थिति उत्कृष्ट बाईस हजार वर्ष की है, इस तरह पूर्व के महा ऋषियों ने कहा है। अतः इस कारण से आठ जन्म में एक लाख छिहत्तर हजार (१७६०००) वर्ष की हुई, यह बात स्पष्ट है। (२४३-२४४) षट् पंचाशद्ववर्ष सहस्राण्येव जलकायिनाम् । स्युश्चतुर्विंशती रात्रि दिवानि वह्निकायिनाम् ॥२४॥ स्युश्चतुर्विंशतिवर्ष सहस्राण्यनिलाङ्गिनाम् । अशीतिश्च सहस्राणि वर्षाणां वनकायिनाम् ॥२४६॥ और अप्काय जीवों की कामस्थिति छप्पन हजार वर्ष की है तथा अग्निकाय जीवों की स्थिति चौबीस दिन रातं की है और वायुकाय जीवों की स्थिति चौबीस हजार वर्ष की है एवं वनस्पतिकाय की स्थिति अस्सी हजार वर्ष की है। (२४५-२४६) एषु सर्वेषु परमा लब्ध पर्याप्तता स्थितिः । अन्तर्मुहूर्त प्रमिता वच्मि तत्रापि 'भावनाम् ॥२४७॥ परन्तु इन सबमें लब्धि अपर्याप्तपने की उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है। यहां भावना इस प्रकार की है। (२४७) .. . क्षमाद्यन्यतरत्वेनोत्पद्य यद्यल्प. जीवितः । असकृत्कोऽप्यपर्याप्त एव याति भवान्तरम् ॥२४८॥ भवांश्च तादृशान् कांश्चित् कुर्यादन्तर्मुहूर्त्तकान् । तैर्लध्वन्तर्मुहूत्तैश्च स्याद् गुर्वन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥२४६॥ अन्तर्मुहूर्तमानाश्च सर्वा एता जघन्यतः । प्ररूपिताः श्रुते कायस्थितयः पुरुषोत्तमैः ॥२५०॥ इति कायस्थिति ॥८॥ कोई भी जीव पृथ्वीकाय आदि की प्रत्येक योनि में उत्पन्न होकर अल्पायुषी हो, यदि बारम्बार अपर्याप्त अवस्था में ही जन्मान्तर में जाये और इसी तरह के
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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