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________________ (३६६) सागरोपम की है और वह ओघ से बादर रूप में है । उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के अन्दर बादर वनस्पति में कितने होते हैं? वह अब कहते हैं । (२३६-२३७) अगुंलासंख्यांशमान नभस्थाभ्रप्रदेश कै: । प्रतिक्षणं हृतैर्याः स्युः तावती: ता विचिन्तय ॥ २३८॥ एक अंगुल के असंख्यवें भाग जितने आकाश में रहे आकाश प्रदेश के समय में से समय निकालते जितनी उत्सर्पिणी अवसर्पिणी होती है, उतने वह होते हैं - इस प्रकार आनना । (२३८) निगोदेत्वोघतः : सूक्ष्म बादरत्वा विवक्षया । द्वौ पुद्गलपरावत्तौं साध कायस्थितिः भवेत् ॥२३६॥ तथा निगोद में तो ओघ से सूक्ष्मत्व अथवा बादरत्व की विवक्षा बिना ही अढ़ाई पुद्गल परावर्तन की कायस्थिति होती है। (२३६) पर्याप्तत्वे क्षमादीनां प्रत्येकं काय संस्थितिः । संख्येयाब्द सहस्त्रात्मा वह्नेः संख्यदिनात्मिका ॥ २४०॥ तथा पर्याप्त रूप में पृथ्वीकाय आदि प्रत्येक की संख्यात संख्या हो सकती है अर्थात् जितने हजार वर्षों की कायस्थिति है और अग्निकाय की संख्यात दिनों की काय- स्थिति होती है। (२४०) : विशेषश्चात्र : तथाहि ...... पर्याप्तत्वे बादराया क्षितेः कायस्थितिर्भवेत् । वत्सराणां लक्षमेकं षट्सप्तति सहस्त्रयुक् ॥२४१॥ भवेदंष्ट भवान् यावत् ज्येष्ठायुः स्थिति कायिकः । ज्येष्ठायुष्कक्षितित्वे नोत्पद्यमानः पुनः पुनः ॥ २४२॥ अब अलग-अलग रूप में कहते हैं- पर्याप्त रूप में बादर पृथ्वीकाय की स्थिति एक लाख और छिहत्तर हजार वर्षों की है। वह इस तरह - उत्कृष्ट आयुष्य वाला, आयुष्य वाला, पृथ्वीकाय जीव यावत् आठ जन्म तक उत्कृष्ट आयुष्य वाले पृथ्वीकाय रूप में अर्थात् इसी योनि में बार-बार उत्पन्न होता है। (२४१-२४२) यदुक्तं भगवत्याम्- "भवादेसेणं जहण्णेणं दो भवगाहणाई उक्कोसेणं अभवगाहणाई |" इति ॥ इस सम्बन्ध में भगवती सूत्र में कहा है कि- भव आदेश से जघन्य दो भव-जन्म और उत्कृष्ट आठ भव-जन्म करता है।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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