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________________ (३६८) २- अप्काय अर्थात् जल की उत्कृष्ट भवस्थिति सात हजार वर्ष की है, ३- वायुकाय की तीन हजार वर्ष उत्कृष्ट भवस्थिति है और ४- अग्निकाय की तीन अहोरात्रि की और ५- प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस हजार वर्ष की तथा साधारण वनस्पतिकाय की अन्तर्मुहूर्त की उत्कृष्ट भवस्थिति है। (२३०-२३१) ऊनितेऽन्तर्मुहूर्ते च स्व स्वोत्कृष्ट स्थितेः खलु । पंचानामप्यमीषां स्यात् ज्येष्टा पर्याप्ततास्थितिः ॥२३२॥ अन्तर्मुहूर्त सर्वेषां यतोऽपर्याप्ततास्थितिः । अन्तर्मुहूर्ते क्षिप्तेऽस्मिन् स्थित तस्याः स्युरोघतः ॥२३३॥ उनकी उत्कृष्ट भवस्थिति में से अन्तर्मुहूर्त कम करने से इन पांचों की उत्कृष्ट पर्याप्तता की स्थिति आ जाती है। क्योंकि सर्व की अपर्याप्त स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, अत: इसके अन्दर अन्तर्मुहूर्त मिलाने में आए तब ओघं से वह स्थिति होती है। (२३२-२३३) पंचानामप्यथै तेषां जघन्यतो भवस्थितिः । .. अन्तर्मुहूर्तमानैव दृष्टाद्दष्ट जगन्त्रयैः ॥२३४॥ तथा इन पांचों की जघन्य भवस्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त ही है, इस तरह तीन जगत् के दृष्टा श्री जिनेश्वर भगवान् ने देखा है. और कहा है। (२३४) अपर्याप्तानां पंचनामप्येषां स्यात् भवस्थितिः । अन्तर्मुहूर्त प्रमिता जघन्या परमापि च ॥२३५॥ इति भवस्थिति ॥१७॥ . तथा इन पांचों अपर्याप्त की भवस्थिति जघन्य से तथा उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त की होती हैं। (२३५) इस तरह भवस्थिति होती है। (७) स्थूलक्ष्मादीनां चतुर्णां स्थूल द्वेधवनस्य च । .... सप्ततिः कोटिकोटयोऽम्भोधीनांकायस्थितिः पृथक् ॥२३६॥ ओघतो बादरत्वे सा बादरे च वनस्पती । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योः यावत्यः ता ब्रवीम्यथ ॥२३७॥ अब इनकी कायस्थिति के विषय में कहते हैं- बादर पृथ्वीकाय चार व दो प्रकार की बादर वनस्पति-इन सब की कायस्थिति ओघ से सत्तर कोडा कोडी
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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