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१- जलोत्पन्न, २- स्थलोत्पन्न और ३- जल स्थल-उभयत्र उत्पन्न । इन भेदों के और तीन सौ अवान्तर भेद हैं। (१५५)
सहस्रं वृन्तबद्धानि वृन्ताकादि फलान्यथ । सहस्रं नालबद्धानि हरितेष्वेव तान्यपि ॥१५६॥
एक सहस्र प्रकार के वृन्तबद्ध वृन्ताकादि फल हैं तथा एक सहस्र प्रकार के नालबद्ध फल हैं । इन सबका हरियाली में ही समावेश होता है। (१५६) किं च ...... मूलत्वक्काष्ट निर्यास पत्र पुष्प फलान्यपि ।
गन्यांग भेदाः सप्तामी जिनैरुक्ता वनस्पती ॥१५७॥ . तथा मूल, छिलका, काष्ट, रस, पत्र, पुष्प और फल- ये सातों वनस्पति के सुगंध वाले अंग भेद कहे हैं। (१५७)
मूलमौशीर वालादि त्वक् प्रसिद्धा तंजादिका । काष्ठं च काक तुंडादि निर्यासो घनसारवत् ॥१५८॥ .. पत्रं तमाल पत्रादि प्रियंग्वादि सुमान्यपि । कक्को लैलालवंगादि फले जाति फलाद्यपि ॥१५६॥ (युग्मं)
जैसे कि - मूल खश तथा वाला (जो पूजा में उपयोग होते हैं) आदि सुगंधित हैं, उसके छिलके दाल चीनी सुगंधमय है, काष्ठ काकतुंड की और रस घनसार की सुगंध होती है। पत्र तमालपत्र का सुंगध होता है, पुष्प प्रियंगु आदि की सुगंध होती है और फल में कक्कोल, इलायची, लौंग और जायफल आदि सुगन्धमय होते हैं। (१५८-१५६)
मूलादयस्ते सप्तापि नाना वर्णा भवन्त्यतः । गुणिताः पंचभिर्वर्णः पंच त्रिंशत् भवन्ति हि ॥१६०॥
तथा इन मूल आदि सातों अंगों के विविध पांच वर्ण-रंग होते हैं इसलिए इनको पांच से गुना करने पर इनके ७४५ = ३५ पैंतीस भेद होते हैं। (१६०)
दुर्गन्धाभावतः श्रेष्ट गन्धेनैकेन ताडिताः । ते पंचत्रिंशदेव स्युरेकेन गुणितं हि तत् ॥१६॥
इनमें दुर्गन्ध का तो अभाव होता है, केवल एक श्रेष्ठ सुगन्ध ही होती है। इसलिए इस पूर्वोक्त पैंतीस की संख्या को एक द्वारा गुना करने पर भी उतने ही भेद रहते हैं, अधिक नहीं होते। (१६१) .