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(३८३)
'एतच्च सर्व अर्थतः क्वचित् पाठतश्च प्रायः प्रज्ञापनागतमेव।।'
इसका भावार्थ पन्नवणा सूत्र में कहा है और उस सम्बन्धी पाठ भी क्वचित् ऐसा ही मिलता है।
श्री हेमचन्द्र सूरिभिश्च अभिधान चिन्तामणौ इत्युक्तम्कुरंट द्या अग्र बीजा मूलजास्तूत्पलादयः । पर्वयोनय इक्ष्वाद्याः स्कन्थजाः सल्लकी मुखाः ॥१५१॥ शाल्यादयो बीजरूहाः संमूर्छजास्तृणादयः । स्युर्वनस्पति कायस्य षडेता मूलजातयः ॥१५२।।
तथा श्री हेमचन्द्राचार्य कृत अभिधान चिन्तामणि में इस प्रकार कहा है कि- १- कुरटं आदि अग्र ब्रीज वाले, २- उत्पल आदि मूलोत्पन्न, ३- गन्ना आदि पर्व योनिक, ४- सल्लकी आदि के स्कंध से उत्पन्न हुए, ५- शाल आदि बीजोत्पन्न और ६- तृण आदि संमूर्छिम। इस तरह वनस्पति काय की छः मूल जाति हैं। (१५१-१५२) . इदमर्थतः प्रथमांगेंऽपि दशवैकालिकेऽपि। जीवाभिगमे तु
प्रथम अंग श्री आचारण सूत्र में और दशावैकालिक सूत्र में भी यही भावार्थ कहा है परन्तु जीवाभिगम में तो इस तरह कहा है:. चतस्रो मुख्य वल्ल्यः स्युः तावच्छताश्च तद्भिदः ।
व्याता मुख्यलता अष्टौ तावच्छताश्च तभ्दिदः ॥१५३॥
मुख्य वल्ली चार हैं और उसके चार सौ प्रकार- भेद हैं । मुख्य लता आठ हैं और उसके आठ सौ भेद हैं।'
नाम ग्राहं तु ता नोक्ताः प्राक्तनैरपि पंडितैः । ... ततो न तत्र दोषो नः तत्पदव्यनुसारिणाम् ॥१५॥
परन्तु उनका नामठाम पूर्वाचार्यों ने भी कहीं दिया नहीं है इसलिए उनके कदमों पर चलने वाला मेरे जैसा नाम नहीं दे सका, उसमें कोई दोष नहीं है। (१५४) .. यो हरितका याः स्युः जल स्थलोभयोद्भवाः ।
भेदाः शतानि तावन्ति तदवान्तर भेदजाः ॥१५५॥ अब हरितक अर्थात् हरियाली (साग-पात) तीन प्रकार की है,