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नानारसाश्च ते सर्वे ततः पंचरसा हताः । • संजातः शतमेकं ते पंच सप्तति संयुतम् ॥१६२॥
तथा इनमें नाना प्रकार के पांच रस होते हैं इसलिए जो वह पैंतीस भेद हैं उन्हें पांच द्वारा गुना करने पर एक सौ पचहत्तर (१७५) भेद होते हैं। (१६२)
स्पर्शास्तु यद्यप्यष्टापि संभवन्त्येव वस्तुतः । तथाप्येषां प्रशस्तत्वात् गृह्यन्ते तेऽपि तादृशाः ॥१६३॥
वास्तविक रूप में तो रस आठ होते हैं फिर भी प्रस्तुत गंधांग प्रशस्त होने से ये रस भी इसके समान प्रशस्त हैं, इस लिए ही पांच ग्रहण किए हैं। (१६३)
तल्लघूष्ण मृदुस्निग्धैः स्पर्शरेते चतुर्गुणाः ।। शतानि सप्त जातानि गन्धाङ्गानां दिशानया ॥१६४॥
तथा लघु, ऊष्ण, मृदु और स्निग्ध- इस तरह चार प्रकार के स्पर्श हैं तो इन चार की संख्या द्वारा गंधांग से गुना करने पर- १७५४४ = ७०० सात सौ भेद होते हैं। (१६४)
उक्तं च जीवाभिगम वृत्तौ.: मूलतय कट्ठनिज्झासपत्त पुष्फफलमाइ गन्धंगा ।
वणादुत्तर भेया गन्धंगसया मुणेयव्वा ॥१६५॥
इस सम्बन्ध में जीवाभिगम सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- मूल, छलिका, काष्ठ, निर्यास-रस, पत्र, पुष्प और फल- इतने गंधांग हैं और इसके वर्ण आदि लेकर उत्तरोत्तर भेद सौ गंधांग हैं अर्थात् १००४७ = ७०० सात सौ होते हैं। (१६५)
सूत्रालापश्च-कतिणं भंते गंधंगा। गोयम सत्त गंधंगा। सत्तगंधंगसया। इत्यादि॥ एवं वल्ल्यादि सूत्रालापा अपि वाच्याः।
- इस सम्बन्ध में सूत्र में यह आलाप है कि- गौतम गणधर पूछा- हे भगवन्त! गंधांग कितने हैं? तब वीर परमात्मा ने उत्तर दिया- हे गौतम! गंधांग सात हैं और इसके सब मिलाकर सात सौ भेद होते हैं, तथा वल्ली आदि के सम्बन्ध में भी इसी तरह ही सूत्रालाप हैं। ... लौकैश्च - शून्यसप्तांक हस्ताश्च सूर्येन्दु वसुवह्नयः।
. एतत्त्संख्यांक निर्दिष्टो वनभारः प्रकीर्तितः ॥१६६॥ तीन सौ इक्यासी करोड़ बारह लाख बहत्तर हजार नौ सौ सत्तर