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________________ (३६७) ततश्च ..... बीजे च योनि भूते व्युत्क्रामति सैव जन्तुरपरो वा । मूलस्य यश्च कर्ता स एव तत्प्रथम पत्रस्य ॥६१॥ और इससे योनिभूत बीज के अन्दर इसी अथवा दूसरे जन्तु का संक्रमण होता है और जो मूल का कर्ता है वही प्रथम पत्र का कर्ता होता है। (६१) बीजस्य निर्वर्त्तकेन जीवेन स्यायुषः क्षयात् । यदबीजं स्यात्परित्यक्तमथ बीजस्य तस्य च ॥१२॥ अम्बु कालक्ष्मादि रूप सामग्री सम्भवे सति । स एव जातु बीजांगी बद्धतादृश कर्मकः ॥१३॥ उत्पद्यते तत्र बीजौऽन्यो वा भूकायिकादिकः ।। निबद्ध मूलादि नामगोत्र कर्मात्र जायते ॥६४॥ स एव निवर्तयति मूलं पत्रं तथादिमम् । मूल प्रथम पत्रे च तत एवैककतृके ॥६५॥कलापकम्॥ इसकी भावना इस तरह है- बीज को बनाने वाले जीव का अपना आयुष्य क्षय हो जाने से जिस बीज को छोड़ा हो उस बीज का जल, काल और पृथ्वी रूप सामग्री:मिलने से तथा ऐसा कर्म जिसने बन्धन किया हो वही बीज का जीव किसी समय में उस बीज में उत्पन्न होता है, अथवा पृथ्वीकाय आदि किसी अन्य मूलादि नामगोत्र कर्म वाला.जीव उत्पन्न होता है। वही जीव मूल को तथा प्रथम पत्र को बनाता है.और इससें मूल और प्रथम पत्र इन दोनों का एक ही कर्ता है। (६२ से ६५) • यदागमः- “जो विय मूले जीवो सोविय पत्ते पढमयाएत्ति ॥" अर्थात् आगम में कहा है कि- "मूल में जो जीव है वही जीव पहले पत्र में अवाह पर:- नन्वेवमादिमदले मूल जीव कृते सति। उद्गच्छत्किशलेऽनन्तकायिकत्वं विरुध्यते ॥६६॥ यहां कोई शंका करते हैं कि- यदि इस तरह से प्रथम पत्र मूल जीव से बना हुआ कहोगे तो, जो अंकुर निकलते हैं उसके अन्दर अनन्त कायित्व में विरोध आयेगा। (६६) क्योंकि यदागमः- "सव्यो वि किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणि ओत्ति॥" अर्थात् आगम में सर्व किसलिय- अंकुर को अनन्तकाय कहा है।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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