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________________ ( ३६६ ) लट्टातसी शण कंगुकोरदूषक कोद्रवाः । बीजानि मूलकानां सर्षपा बरट्टरालकाः । प्रज्ञप्ता योनिरे तेषामागमे सप्त वार्षिकी ॥ ५६ ॥ षट पदी ॥ तथा लट्टातसी, सण, कांग, कोरदूषण, कोदरा, मूली के बीज, सरसों, वरह और शलक- ये अनाज की योनि आगम में सात वर्ष की कही है। (५६) इयमत्र भावना कोष्टकादिषु निक्षिप्यैतेषां विधान शालिनाम् लिप्तानां मुद्रितानां चोत्कृष्टैषा योनि संस्थितिः ॥५७॥ उसकी भावना इस तरह है- ये जो गिनाये हैं उन अनाज को कोठार आदि में डालकर ऊपर मजबूत ढक्कन से ढककर और ऊपर लिपाई कर तथा सील करके रखने में आये तो उसकी पूर्व कही उत्कृष्ट स्थिति रहती है। (५७) - तदनुक्षीयते योनिरंकु रोत्पत्ति कारणम् । भवेद्बीजमबीजं तन्नोप्तमंकुरितं भवेत् ॥५८॥ उसके बाद अंकुरों की उत्पत्ति का कारण रूप उसकी वह योनि नष्ट हो जाती है और वह बीज अबीज रूप हो जाता है और बोने पर उगता नहीं है । (५८) अन्तर्मुहूर्त्त सर्वेषामेषां योनिर्जघन्यतः । यत्केषांचिद चित्तत्वं जायते ऽन्तर्मुहूर्त्ततः ॥५६॥ इन सर्व की योनि जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त की है क्योंकि कई तो अन्तर्मुहूर्त में अचित्त हो जाती है। (५६) परं तत्सर्व विद्वेद्यं व्यवहार पथे तु न । व्यवहारात्तु पूर्वोक्तैः कालमानैरचित्तता ॥६०॥ इदमर्थतः पंचमांगे प्रवचन सारोद्धारे च ॥ परन्तु यह अचित रूप सर्वज्ञ परमात्मा से ही जान सकते हैं, व्यवहार मार्ग में इस तरह नहीं है क्योंकि व्यवहार दृष्टि से तो जो पूर्व में कहा है उतने काल के बाद ही अचित रूप होती है । (६०) इस भावार्थ को पांचवें अंग भगवती सूत्र में तथा प्रवचन सारोद्धार में कहा
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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