SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 405
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३६८) अत्र उच्यते ..... बीजे मूलतयोत्पद्य बीज जीवोऽथवापरः । करोत्युत्सूनतावस्थां ततोऽनन्तर भाविनीम् ॥६७॥ ध्रुवं किसलया वस्था सृजन्त्यनन्त जन्तवः । ततश्च तेषु जीवेषु विनष्टेषु स्थितिक्षयात् ॥१८॥ स एव मूल जीवस्तां तनूमनन्तदेहिनाम् । समाप्याद्यस्वांगतया तावद्वर्द्धयते किल ॥६॥ यावत्प्रथम पत्रं स्यात्ततश्च न विरुध्यते । किशलेऽनन्तकायित्वमेक कर्तृकतापि च ॥७०॥कलापकम्। इस शंका का समाधान करते हैं- बीज का जीव अथवा कोई अन्य जीव बीज में मूल रूप में उत्पन्न होकर विकसित अवस्था प्राप्त करता है । उस समय. अनन्तर भावी किसलय (अंकुर) अवस्थान में अनन्तकाय जन्तुओं को ही उत्पन्न करता है और उसके बाद जब उसका स्थिर काल पूर्ण होता है अतः वे नष्ट हो जाते हैं । तब यही मूल जीव उस अनन्त कार्मिक के शरीर को अपने आद्य अंग रूप में ग्रहण करके जहाँ तक प्रथम पत्र होता है वहां तक वृद्धि करता जाता है और इससे किसलय (अंकुर) के अनन्त कायित्व में तथा एक कर्तत्व में कुछ भी विरोध नहीं आता है। (६७ से ७०) अन्येतुव्याचक्षते- . इह बीज समुत्सूनावस्थैव प्रतिपाद्यते। प्रथम पत्र शब्देन तस्याः प्रथममुद्भवात् ॥१॥ अन्य कई तो इस तरह कहते हैं कि यहां 'प्रथम पत्र' इस शब्द का 'बीज की विकसित अवस्था' ऐसा ही भावार्थ लेना, क्योंकि यह प्रथम उत्पन्न होता हैं । (७१) ततश्च...... मूलं बीज समुत्सूनावस्था चेत्येक कर्तृके। अनेन चैवं नियमो लभ्यते सूत्र सूचितः ॥७२॥ एक जीव कृते एव मूलं चोत्सूनता दशा । .. नावश्यं मूल जीवोत्थं शेषं किसलयादिकम् ॥७३॥ और इससे मूल और बीज की विकसित अवस्था दोनों का एक कर्ता है इससे सूत्र में सूचना नियम लभ्य होता है कि-मूल और विकसित अवस्था दोनों
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy