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________________ ( ३१८) यद्यस्य निर्मितं नाम नाम सत्यं नु तद् भवेत् । अवर्धयन्नपि कुलं यथा स्यात् कुलवर्धनः ॥ १३६६॥ किसी का जो नाम रखा जाता है वह नाम सत्य कहलाता है। जैसे कि कोई को कुछ भी बढ़ाने वाला न हो फिर भी नाम 'कुलवर्धन' होता है || १३६६ ॥ कुल तत्तद्वेषाद्युपादानाद्रूपसत्यं भवेदिह 1 यथात्त मुनिनेपथ्यो दाम्भिकोऽप्युच्यते मुनिः ॥१३६७॥ अमुक प्रकार का वेश उपादान से रूप सत्य कहलाता है । जैसे मुनि का वेश धारण किया हो, वह चाहे दंभक हो फिर भी मुनि कहलाता है । (१३६७) वस्त्वन्तरं प्रतीत्य स्याद्दीर्घताह्न स्वतादिकम् । यदेकत्र तत्प्रतीत्यं सत्यमुक्तं जिनेश्वरैः ॥१३६८ || दैर्घ्यं यथानामिकाया अधिकृत्य कनिष्ठिकाम् । तस्या एव च ह्रस्वत्वं मध्यमामधिकृत्य तु ॥ १३६६॥ एक ही वस्तु अन्य वस्तुओं की अपेक्षा से छोटी-बड़ी कहलाती है, वहां जिनेश्वर भगवन्त ने अपेक्षा से सत्य कहा है। जैसे कि अनामिका अंगुली मध्यमा की अपेक्षा छोटी है परन्तु कनिष्ठिका की अपेक्षा से बड़ी कहलाती है। (१३६८-१३६८) यथा चैत्रस्य पुत्रत्वं स्यात्तत्पितुरपेक्षया । पितृत्वमपि तस्यैव स्वपुत्रस्य व्यपेक्षया ॥१३७०॥ तथा एक मनुष्य अपने पिता की अपेक्षा से पुत्र है, परन्तु अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है । यह भी अपेक्षा से सत्य का दृष्टान्त है । (१३७० ) विवक्षया यल्लोकानां तत्सत्यं व्यवहारतः । गलत्यमत्रं शिखरी दह्यतेऽनुदरा कनी ॥१३७१। भूभृतत्स्थ तृणादीनाम मन्त्रोदकयोरपि । अविभेदं विवक्षित्वा लोको ब्रूते तथा विधम् ॥१३७२॥ संभोग बीज प्रभवो दराभावे वदन्ति च । कन्यामनुदरां सत्यमित्यादि व्यवहारतः ॥१३७३॥ लोगों की अपेक्षा से सत्य होता है वह व्यवहार से सत्य है। जैसे बर्तन में का जल टपकता हो फिर भी बर्तन टपकता है, इस तरह लोग कहते हैं। पर्वत
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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