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________________ (३०४) सासादनं चोक्त मेव षडावलिमितं पुरा । तुर्यमितं समधिक त्रयस्त्रिंशत्पयोधिभिः ॥१२६१।। दूसरे सास्वादन गुण स्थान का काल छः आवली समय होता है, वह पूर्व में कह ही दिया है। चौथे गुण स्थान का समय तैंतीस सागरोपम से कुछ अधिक होता है । (१२६१) सर्वार्थ सिद्ध देवत्वे त्रयस्त्रिंशत्पयोनिधीन् । .. ... धृत्वाऽविरत सम्यक्त्वं ततोऽत्राप्यागतौऽसकौ ॥१२६२॥ यावदद्यापि विरतिं नातोति तावदेव यत् । .. तुर्यमेव गुणस्थानमुररीकृत्य वर्तते ॥१२६३॥ . क्योंकि चौथे गुण स्थान वाला जीव सर्वार्थ सिद्ध देवत्व में तैंतीस सागरोपम तक रहकर अविरति सम्यकत्व प्राप्त कर वहां से पुनः यहां भी.आता है और जहां तब यहां पर भी वह विरति प्राप्त नहीं करता तब तक वह चौथे ही गुण. स्थानक में रहता है। (१२६२-१२६३) . किंचिन्यूनन वाब्दो न पूर्व कोटिमिते मते । त्रयोदश पंचमं च गुण स्थाने उभे अपि ॥१२६४॥ पांचवा और तेरहवां - इन दोनों गुण स्थानकों का स्थिति काल करोड़ पूर्व से आशय नौ वर्ष कम होता है । (१२६४) , अन्तिमं ङञणनमेत्येवं रूपैः किलाक्षरैः । अविलम्बात्वरितयोच्चारितैः प्रमितं भवेत् ॥१२६५॥ अन्तिम गुण स्थान का स्थिति काल, विलम्ब किए बिना तथा शीघ्रता किए बिना ङ, ञा, न, म - ये पांच अक्षर बोलने में जितना समय लगता है, उतना काल है । (१२६५) आन्तर्महर्ति कानि स्युः शेषाण्यष्टाप्यमूनि च । के चिद्युन्यून पूर्व कोटिके षष्ट सप्तके ॥१२६६॥ शेष आठ रहे, इनका स्थितिकाल अन्तर्मुहूर्त' जितना है। कईयों का कहना है कि इन आठ में से दो छठे और सातवें का काल करोड़ पूर्व से कुछ कम कहा है। (१२६६) तथोक्तं भगवती सूत्रे- पमत्त संजमस्सणं पमत्त संजम वट्टमाणस्स सव्वा
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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