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________________ (३०५) विणं पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ। मंडिआ एक जीवं पडुच्च जह्न एगं समयं उक्को देसूणा पुव्वकोडी। णाणजीवे पडुच्च सव्वद्धा ॥अस्स वृत्तिः- जह्न एक्कं समयंति कथं उच्यते । प्रमत्त संयत प्रतिपत्तिसमय समनन्तरमेव मरणात् ॥ देसूणा पव्वकोडि त्ति। किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त प्रमाणे एव प्रमत्ता प्रमत्त गुण स्थाने । ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्व कोटिं यावदुत्कर्षेण भवत: +महान्ति च अप्रमत्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहूर्तानि कल्प्यन्ते। एवं च अन्तर्मुहूर्त प्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मिलने देशोन पूर्व कोटी कालमानं भवति ॥अन्ये च आहूः । अष्ट वर्षो नां पूर्व कोटिं यावत् उत्कर्षत: प्रमत्तता स्यात्। एवं अप्रमत्त सूत्रमपि ॥ नवरं ॥ जह्न अंतर्मुहूत्तं ति । किल अप्रमत्ताद्धायां वर्तमान अन्तर्मुहूर्त मध्ये मृत्युः न भवतीति ॥ चूर्णिकारमतं तु प्रमत्त संयत वर्जः सर्वेऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते प्रमादाभावात् । स च उपशम श्रेणिं प्रतिपद्यमानः मुहूर्ताभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्य कालो लभ्यते इति ॥ देशोन पूर्वकोटी तु केवलिमाश्रित्य इति ॥ तथा इस सम्बन्ध में श्री भगवती सूत्र में इस तरह कहा है कि- 'प्रमत्त और अप्रमत्त में रहने वाले संयमी-मुनि का सर्व प्रमत्त काल कितना होता है ?' उत्तर'हे मंडिया, एक जीव के आश्रित को जघन्य एक समय और उत्कृष्ट करोड़ पूर्व से कुछ कम होता है और छोटे जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल जानना ।' यह टीका के आधार अनुसार है। यहां जघन्य एक समय का काल क्यों कहा ? उत्तर- प्रमत्त संयम अंगीकार करके अन्य समय में ही मर जाये तो, जानना। प्रश्न-पूर्व करोड़ से कुछ कम, इस तरह क्यों कहा ? उत्तर - प्रमत्त और अप्रमत्त- इन प्रत्येक गुण स्थानक की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, और इनके पर्याय एकत्रित करें तो उत्कर्ष से कुछ कम करोड़ पूर्व होता है। इसमें भी अप्रमत्त की अपेक्षा से प्रमत्त के अन्तर्मुहूत्तो की बड़ी कल्पना है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाला प्रमत्त गुण स्थान के सर्व काल . एकत्रित करे तो करोड़ पूर्व कुछ कम होता है। और कईयों का ऐसा मत है कि- प्रमत्त • का स्थिति काल उत्कृष्ट से करोड़ पूर्व से आठ वर्ष कम है। अप्रमत्त के सम्बन्ध में भी इसी तरह ही समझना। अन्तर इतना ही है कि अप्रमत्त काल के अन्दर रहने वाले की अन्तर्मुहूर्त के अन्दर मृत्यु नहीं होती। तथा चूंर्णिकार का तो ऐसा मत है कि प्रमत्त संजमी बिना अन्य सर्व सर्व विरति अप्रमत्त कहलाते हैं। क्योंकि इनको प्रमाद का अभाव है- प्रमाद नहीं होता। इस प्रकार का संयमी उपशम श्रेणि को प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त के अन्दर मृत्यु प्राप्त करने से जघन्य काल माना जाता है। कुछ कम करोड़ पूर्व काल जो कहा है वह केवली के कारण कहा है।'
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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