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________________ (३०३) पंचमस्था द्वितीयस्था मिश्रश्चाविरताः क्रमात् । प्रत्येकं स्युरसंख्येय गुणास्तेभ्यस्त्व योगिनः ॥१२८५॥ स्युरनन्तगुणा मिथ्यादृशस्तेभ्योऽप्यनन्तकाः ।। इदमल्प बहु त्वं स्यात् सर्वत्रोत्कर्ष सम्भवे ॥१२८६॥ युग्मं। पांचवां, दसरा, तीसरा और चौथा गण स्थान से ऊपर करते अनुक्रम से असंख्य, असंख्य गुणा होता है और अयोगी अर्थात् चौदहवें गुण स्थान में ऐसा करते अनंत गना होता है, इससे अनन्त गुणा मिथ्यादृष्टि होते हैं । यह अल्पबहुत्व सर्वत्र उत्कृष्टतः समझना। (१२८५-१२८६) विपर्ययोऽप्यन्यथा स्यात् स्तोकाः स्युर्जातु चिद्यथा। उत्कृष्ट शान्त मोहेभ्यो जघन्याः क्षीण मोह काः ।।१२८७॥ एवं सास्वादनादिष्वपि भाव्यम् ॥ . - इस विषय में कहीं-कहीं अन्यथा विपर्यय यानि फेर-फार भी है जैसे कि किसी समय में उपशान्त मोह गुण स्थान वाले की उत्कृष्ट संख्या करते क्षीण मोह गुण स्थान वाले की जघन्य संख्या छोटी होती है। (१२८७) सास्वादन आदि में भी इसी प्रकार हैं। मिथ्यात्वं कालतोऽनादि सान्तं स्यात्सादि सान्तकम्। - अनाद्यनन्तं च न तत्साधनन्तं तु सम्भवेत् ॥१२८८॥ ... प्रथम मिथ्यात्व गुण स्थान का स्थिति काल अनादि सांत. सादि सांत और अनादि अनंत भी है, परन्तु सादि अनन्त संभव नहीं है । (१२८८) स्यादाद्यं तत्र भव्यानामनाप्त पूर्व सदृशाम् । द्वितीयं प्राप्य सम्यकत्वं पुनर्मिथ्यात्वमीयुषाम् ॥१२८६॥ .... पूर्व में जिसे समकित प्राप्त न हुआ हो उस भव्यात्मा का इस गुणस्थान का पहला अर्थात् अनादि सांत स्थिति काल है और समकित प्राप्त कर पुन: मित्थात्व में गिर गया हो, उसको गुण स्थान का स्थिति काल दूसरा सादि सांत है । (१२८६) स्यात्तृतीयमभव्यानां सदा मिथ्यात्ववर्त्तिनाम् । आनन्त्या सम्भवात् सादेस्तुर्य युक्तमसम्भवि ॥१२६०॥ ___हमेशा मिथ्यात्व में ही रहने वाले अभव्यात्मा के गुण स्थान का स्थिति-- काल तीसरा अनादि अनन्त है, सादि और अनन्त रूप असंभव होने से सांदि अनन्त ऐसा चौथा प्रकार संभव नहीं है । (१२६०)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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