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________________ (३००) रुणद्धयथो काय योगं स्वात्मनैव च सूक्ष्मकम् । स स्यात्तदा त्रिभागोनदेहव्यापिप्रदेशकः ॥१२६५॥ वह इस तरह से है- आयुष्य जब अन्तर्मुहूर्त जितना शेष रहता है तब सयोगी केवली लेश्यातीत ध्यान में निमग्न होने की इच्छा से योगो को रूंधते (रोकते) हैं । उसमें प्रथम स्थूल कायायोग से स्थूल मन-वचन के योग को रोकते हैं और फिर स्थल काल योग को रोकते हैं । फिर सूक्ष्म क्रिय अनिवृत्ति शुकल ध्यान का विशेष चिन्तन करते हुए सूक्ष्म मन-वचन के योग को रोकते हैं। फिर स्वयं स्वतः सूक्ष्म काययोग को रोकते हैं और इस समय में इनका शरीर प्रदेश तृतीयांश से कम होकर रहता है। (१२६२ से १२६५) शुक्लध्यानं समुच्छिन्नक्रि यमप्रतिपाति च । ध्यायन् पंचह्रस्ववर्णोच्चारमानं स कालतः ॥१२६६॥ . शैलेशीकरणं याति तच्च प्राप्तो भवत्यसौ । यौग व्यापार रहितोऽयोगी सिद्धयत्यसौ ततः ॥१२६७॥ युग्मं। उसके बाद समुच्छिन्न क्रिय अप्रतिपाती शुक्ल ध्यान में निमग्न रहकर पांच ह्रस्व वर्गों के उच्चार मात्र समय में शैलेशीकरण करते हैं और इस तरह करते हुए सर्व योग व्यापार रहित अयोगी बनकर सिद्ध होते हैं। (१२६६-१२६७) गत्वानुपूव्वौं देवस्य शुभान्यरव गति द्वयम । द्वौ गन्धावष्ट च स्पर्शा रसवर्णांग पंचकम् ॥१२६८॥ तथा पंच बन्धनानि पंच संघातनान्यपि । निर्माण पट् संहननान्यस्थिरं वा शुभं तथा ॥१२६६॥ दुर्भगं च दुःस्वरं चानादेयमयशोऽपि च । । संस्थान षट् कम गुरु लघूपघातमेव च ॥१२७०॥ पराघातमथोच्छ वासमपर्याप्ताभिधं तथा । असातसातायोरेकं प्रत्येकं च स्थिरं शुभम् ॥१२७१॥ उपांग 'त्रितयं नीचैर्गोत्र सुस्वरमेव च । अयोग्युपान्त समये इति द्वासप्ततेः क्षयः ॥१२७२॥ __पंचभिं कुलं। अयोगी केवली गुण स्थान के उपांत्य समय में देव की गति तथा अनुपूर्वी, शुभ और अशुभ विषय गति (आकाश गति), दो गंध, आठ स्पर्श, पांच रस, पांच
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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