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वर्ण, पांच अंग, पांच बन्धन, पांच संघात, छः संस्थान छ: संघयण, तीन उपांग, नीच गोत्र, निर्माण, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भाग्य, सुस्वर, दुःस्वर, आनादेर, अपयश, अगुरुलघु, उपति, पराघात, उच्छ्वास अर्थात् प्रत्येक-स्थिर और अज्ञात अथवा सात वेदनीय - ये सत्तरह नाम कर्म, इस तरह आम तौर से बहत्तर प्रकृतियों का क्षय होता है । (१२६८ से १२७२)
मनुजस्य गतिश्चायुश्चानुपूर्वी ति च त्रयम् । त्रस बादर पर्याप्तयशांसीति चतुष्ट यम् ॥१२७३।। उच्च गोत्रमथादेयं सुभगं जिन नाम च । असात सातयोरेकं जातिः पंचेन्द्रियस्य च ॥१२७४।। त्रयोदशैताः प्रकृती: क्षपयित्वान्तिमे क्षणे । अयोगी केवली सिद्धयेन्निर्मूल गत कल्मषः ॥१२७५।।
त्रिभिर्विशेषकम्। और अन्त्य समय में मनुष्य की गति, आयुष्य और आनुपूर्वी - ये तीन, उच्च गोत्र, असाता और सांता वेदनीय में से एक, पंचेन्द्रिय की जाति और त्रस बादर, पर्याप्त, १. यश, आदेय, सुभग और जिन - ये सात नाम कर्म, इस तरह कुल मिलाकर तेरह
प्रकृतियां खत्म करते हैं। इस तरहं सर्व कल्मष निर्मूल होने पर अयोगी केवली सिद्ध होते हैं। (१२७३ से १२७५)
मतान्तरे ऽत्रानुपूर्वी क्षिपत्युपान्तिम क्षणे । . ततस्त्रि सप्ततिं तत्र द्वादशान्त्ये क्षणे क्षिपेत् ॥१२७६ ।।
इति चतुर्दशम् ॥
कई आचार्यों का ऐसा मत है कि आनुपूर्वी को उपान्त्य समय में खत्म करते हैं, इसलिए उपान्त्य में ७२ के स्थान पर ७३ और अन्त्य में १३ के स्थान पर १२ खत्म करते हैं। (१२७६)
इस तरह चौदहवें गुण स्थान का स्वरूप कहा । आद्यं द्वितीयं तुर्यं च गुणस्थानान्यमूनि वै । गच्छन्तमनु गच्छन्ति परलोके शरीरिणम् ॥१२७७॥ मिश्र देश विरत्यादीन्येकादश पराणि च । सर्वथात्र परित्यज्य जीवा यान्ति परं भवम् ॥१२७८॥