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________________ (२६६) भाषा पुदगल संघात विपाकित्वादयोगिनि । नोदयो दुःस्वर नाम सुस्वर नाम कर्मणो ॥१२५७॥ शरीर पुदगल दल विपाकित्वादयोगिनि । शेषा न स्युः काययोगा भावात्प्रकृतयस्त्विमाः ॥१२५८ ॥ तथा अयोगी गुण स्थान में भाषा के पुदगलों के विपाक रूप के कारण दु:स्वर और सुस्वर नाम कर्मों का उदय नहीं होता, तथा शरीर के पुद्गल के विपाक रूप के कारण से काययोग नहीं होता परन्तु आगे कही प्रकृतियाँ भाव से होती हैं। (१२५७ - १२५८) ततश्च..... यशः सुभगमादेयं पर्याप्तं त्रस बादरे । पंचाक्ष जातिर्मनुजायुर्गत्यौ जिननाम च ॥१२५६ ॥ उच्चैर्गोत्रं तथा सातासातान्यतरदेव च । अन्त्यक्षणांवध्युदया द्वादशैता अयोगिनः ॥ १२६० ॥ युग्मं । इति त्रयोदशम् ॥ यश, सुभग, आदेय, पर्याप्त, त्रस और बादर ये छह नाम कर्म, पंचेन्द्रिय की जाति, मनुष्य का आयुष्य तथा गति, जिन नाम कर्म, उच्च गोत्र तथा साता अथवा असातावेदनीय - इस तरह कुल बारह प्रकृतियां अयोगी केवली गुण स्थान के अन्तिम समय तक उदय में होती हैं । ( १२५६ - १२६०) इस तरह तेरहवां गुण स्थान कहा है । नास्ति योगो ऽस्येत्ययोगी तादशो यश्च केवली । गुण स्थानं भवेत्तस्या योगि केवल नामकम् ॥१२६१॥ जिसको योग नहीं है उस अयोगी केवली का गुण स्थान ' अयोगी केवली' गुण स्थान कहलाता है । (१२६१) तच्चैवम्... अन्तर्मुहूर्त्त शेषायुः सयोगी केवली किल । लेश्यातीत प्रतिपित्सुर्ध्यानं योगान् रुणद्धि सः ॥१२६२॥ तत्र पूर्व बादरेण काय योगेन बादरौ । रुद्ध वाग्मनो योगो काय योगं ततश्च तम् ॥ १२६३ ॥ सूक्ष्मक्रियं चानिवृत्ति शुक्ल ध्यानं विभावयन् । रुन्ध्यात् सूक्ष्मांग योगेन सूक्ष्मौ मानसवाचिकौ ॥१२६४॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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