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________________ (२७६) कार्मण शरीर के योग से औदारिक आदि शरीर के योग्य पुद्गलों का आहार प्रारंभ करता है, वह दूसरे-तीसरे समय में शरीर का आरंभ होने से औदारिक आदि मिश्र करके अन्तर्मुहर्त के स्थिति काल वाला शरीर निष्पत्ति हो तब तक वह आहार किया करता है । (११२१ से ११२३) यदाहुः- तेएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निव्वत्ती ॥११२४॥ कहा है कि- जीव प्रथम तैजस और कार्मण शरीर से अन्तर रहित आहार किया करता है । फिर शरीर की निष्पत्ति हो वहां तक मिश्र शरीरं द्वारा आहार करता है । (११२४) स सर्वोप्योज आहार ओजो देहाह पुद्गलाः ।। ओजो वा तैजसः कायस्तद्रूपस्तेन वा कृतः ॥११२५॥ यह सब ओज आहार कहलाता है। यहां ओज अर्थात् देह के योग्य पुद्गल अथवा ओज अर्थात् तैजस काय, इसके कारण से ओज आहार अर्थात् ओज रूप आहार अथवा तैजस कायकृत आहार होता है । (११२५). शरीरो पष्टम्भकानां पुद्गलानां समाहृतिः ।। त्वगिन्द्रियादि स्पर्शेन लोमाहारः स उच्यते ॥११२६॥ शरीर के आधार रूप पुद्गलों (चमड़ी, स्पर्श इन्द्रिय) आदि इन्द्रियों के स्पर्श द्वारा आहार करना - उसका नाम लोम आहार कहलाता है। (११२६) मुखे कवल निक्षेपादसौ कावलिकाभिधः । . एकेन्द्रियाणां देवानां नारकाणां च न ह्यसौ ॥११२७॥ मुख में कवल-ग्रास रखना-लेना, इस तरह आहार करना इसका नाम 'प्रेक्षप आहार' कहलाता है। यह प्रक्षेप आहार - कवल आहार एकेन्द्रिय जीव को, देव और नरक के जीवों को नहीं होता है । (११२७) जीवाः सर्वेऽप्यपर्याप्ता ओज हारिणो मताः । . देहपर्याप्ति पर्याप्ता लोमाहाराः समेऽङ्गिनः ॥११२८॥ अपर्याप्त जीव सर्व ओज आहारी होते हैं और देह-शरीर पर्याप्त वाले सभी जीव लोम आहारी होते हैं। (११२८) ओजसोऽनाभोग एव लोमस्त्वाभोगजोऽपि च । एकेन्द्रियाणां लोमोऽपि स्यादनाभोग एव हि ॥११२६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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