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________________ (२७१) औदारिक, वैक्रिय और आहरक शरीर में वे तीनों करण होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर में सदा संघात और परिशाट होता है क्योंकि ये दोनों अनादि होने से इनको केवल संघात नहीं होता और मात्र परिशाट नहीं होता। वह तो मोक्षगामी को ही संभव है । (१०६४-१०६५) . 'अत्र च भूयान् विस्तरः अस्ति स च आवश्यक वृत्यादिभ्यः अवसेयः॥' - यह विषय बहुत विस्तार वाला है, इसलिए आवश्यक वृत्ति आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। अथ प्रकृतम्...... वक्रा गतिश्चतुर्धा स्याद्वक़रेकादिभिर्युता । तत्राद्या द्विक्षणैकैकक्षणवृद्धया क्रमात्पराः ॥१०६६॥ अब प्रस्तुत विषय कहते हैं । वक्र गति चार प्रकार की है; १- एक वक्र, २- द्वि व्रक, ३- तीन वक, ४- चार व्रक। उसमें प्रथम एक वक्र दो समय का है और उसके बाद के तीन में एक-एक क्षण अधिक होता है । वह इस प्रकार से । (१०६६) तथाहि- बदोर्ध्व लोक पूर्वस्या अधः श्रयति पश्चिमाम् । एकक्क्रा द्वि समया ज्ञेया वक्रा गतिस्तदा ॥१०६७॥ ... जब जीव ऊर्ध्व लोक की पूर्व दिशा में से अधो लोक की पश्चिम दिशा में जाता है, तब वह वक्र गति ‘एक वक्र' कहलाती है और वह दो समय की समझना। क्योंकि (१०६७) - समय श्रेणि गतित्वेन, जन्तुरेकेन यात्यधः ।। द्वितीय समये तिर्यग् उत्त्पत्ति देशमाश्रयेत् ॥१०६८॥ ... जीव सम श्रेणि में गमन करता हो तो प्रथम समय में सीधा अधो लोक में जाता है और वहां से दूसरे समय में तिरछा अपने उत्पत्ति प्रदेश में पहुँच जाता है। (१०६८) पूर्व दक्षिणोर्ध्व देशादधश्चेदपरोत्तराम् ।। व्रजेत्तदा द्वि कुटिला, गतिस्त्रिसमयात्मिक ॥१०६६॥ एके नाधस्समश्रेण्या तिर्यगन्येन पश्चियाम् ।। तिर्यगेव तृतीयेन वायव्यां दिशि याति सः ॥११००॥ और अग्नि कोने के ऊर्ध्व प्रदेश से यदि अधो दिशा के वायव्य कोने में
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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