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________________ (२७२) जाता है तो तीन समय की द्विवक्र गति होती है अर्थात् एक समय में सम श्रेणि गति करके वह नीचे जाता है, दूसरे समय तिरछा पश्चिम दिशा में जाता है और तीसरे समय में तिर्छा जाकर वायव्य दिशा का आश्रय लेता हैं। (१०६६-११००) त्रसानामेतदन्तैव वक्रा स्यानाधिका पुनः । स्थावरणां च तुः पंच समयान्तापि सा भवेत् ॥१९०१॥ .. तत्र चतुः समया त्वेवंत्रस नाडया बहिरधोलोकस्य विदिशो दिशम् । यात्येके न द्वितीयेन त्रसनाड्यन्तरे विशेत् ॥११०२॥ ऊर्ध्व याति तृतीयेन चतुर्थे समये पुनः । . वसनाड्या विनिर्गत्य दिश्यं स्वस्थानमाश्रयेत् ॥११०३॥.. त्रस जीवों की वक्र गति इतनी ही होती है, अधिक नहीं होती; परन्तु स्थावर जीवों की चार, पांच समय की भी होती हैं। इसमें जो चार समय की होती है वह इस प्रकार-पहले समय में वह बस नाड़ी से बाहर अधोलोक की विदिशा के किसी कोने में से दिशा में जाता है, दूसरे समय में त्रस नाड़ी के अन्दर प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्व गति करता है और चौथे समय में फिर उस त्रस नाड़ी में से बाहर निकल कर अपने जिस स्थान जिस दिशा में आना हो (उस विदिशाकोने में नहीं) ऐसे स्थान का आश्रय ग्रहण करता है । (११०१ से ११०३) . दिशो विदिशि याने तु नाडीमाद्ये द्वितीये के। ऊर्ध्व चाधस्तृतीये तु बहिर्विदिशि तुर्यके ॥११०४॥ यदि जीव को दिशा में से विदिशा में जाना हो तो पहले समय में नाड़ी में प्रवेश करता है, दूसरे समय में ऊर्ध्व गति करता है, तीसरे समय में अधो दिशा में जाता है और चौथे समय में बाहर विदिशा में जाता है । (११०४) यदोक्तरीत्या विदिशो जायते विदिशे क्वचित् । तदा तत्समयाधिक्यात् स्यात्पंच समया गतिः ॥११०५॥ परन्तु उसे जब एक विदिशा में से निकलकर किसी अन्य विदिशा में उत्पन्न होना हो तब उसे चार समय से अधिक समय होना चाहिए। अंतः उसे पांच समय लगते हैं। (११०५) उक्तं च
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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