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________________ (२७०) - संघात और परिशाट-ग्रहण और त्याग का स्वरूप आगम में इस प्रकार कहा है- औदारिक आदि प्रकार के शरीर हैं, उनके तीन करण कहे हैं- प्रथम क्षण में पुद्गलों का सर्वथा ग्रहण होता है, अन्तिम क्षण में सर्वथा त्याग होता है और बीच के क्षणों में ग्रहण और त्याग दोनों होते हैं। (१०८७-१०८८) यथा तप्त तापिकायां सस्नेहायामपूपकः । .. गृह्णाति प्रथमं स्नेहं सर्वात्माना न तु त्यजेत् ॥१०८६॥ ततश्च किंचिद् गृह्णाति स्नेहं किंचित्पुनस्त्यजेत् । संघातभेद रूपत्वात्पुद्गलानां स्वभावतः ॥१०६०॥ तथैव प्रथमोत्पन्नः प्राणभृत् प्रथम क्षणे । सर्वात्मनोत्पत्ति देश स्थितान् गृह्णाति पुद्गलान् ॥११॥ ततश्चाभव पर्यन्तं द्वितीयादि क्षणेषु तु । गृहंस्त्जंश्च तान् कुर्यात् संघात परिशाटनम् ॥१०६२॥ जिस तरह गरम की तेल वाली कढ़ाई में डाला हुआ पूड़ा प्रथम सर्वथा तेल ग्रहण करता है- त्याग नहीं करता है और फिर थोड़ा ग्रहण करता है और थोड़ा छोड़ता है, क्योंकि ग्रहण करना और छोड़ देना - ऐसा मूल से ही पुद्गलों का स्वभाव है। उसी ही तरह प्रथम उत्पन्न हुआ प्राणी प्रथम क्षण में उत्पत्ति देश में रहे पुद्गलों को सर्वथा ग्रहण ही करता है, उसके बाद दूसरे क्षणों में जन्म पर्यंत ग्रहण और त्याग दोनों किया करता है। इसका नाम संघात परिशाटन कहते हैं। (१०८६ से १०६२) तत आयुः समाप्तौ च भाव्यायुः प्रथम क्षणे । . स्यात् शाट एव प्राग्देह पुद्गलानां तु न ग्रहः ॥१०६३॥ और जब आयुष्य समाप्त होता है तब भावी आयुष्य के प्रथम क्षण में 'परिशाटन' ही होता है अर्थात् पूर्व शरीर के पुद्गलों का त्याग ही होता है, उन्हें ग्रहण करने का नहीं होता। (१०६३) औदारिक वैक्रियाहारकेषु स्युस्त्रयोऽप्यमी । संघात परिशाटः स्यात्तैजस कार्मणे सदा ॥१०६४॥ . अनादित्वात् भवेन्नैव संघातः केवलोऽनयोः । केवलः परिशाटश्च सम्भवेन्मुक्तियायिनाम् ॥१०६५॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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