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________________ (२६०) ११-१०३७) तथा असंख्य भेद वाले, अपने विषय वाले क्षेत्र और काल के भेद को लेकर असंख्य भेद वाले, तथा इसके निर्विभाग विभाग को लेकर अनन्त भेद वाले होते हैं। (१०३४-१०३५) एवं मनः पर्यवस्य केवलस्य च पर्यवाः । निर्विभाग विभागैः स्वे स्वाम्यादि भेदतोऽपि च ॥१०३६॥ अनन्त द्रव्य पर्याय ज्ञानाच्च स्युरनन्तका । .. अज्ञानत्रिययेऽप्यवं ज्ञेया अनन्त पर्यवाः ॥१०३७॥ युग्मं। इसी तरह मनः पर्यव ज्ञान के और केवल ज्ञान के स्व पर्यायों के भी . निर्विभाग विभागों को लेकर तथा स्वामी आदि भेद को लेकर तथा अनन्त द्रव्य पर्याय के ज्ञान को लेकर अनन्त पर्याय हैं। तीन अज्ञानों के भी इसी तरह अनन्त स्व पर्याय होते हैं। (१०३६-१०३७) पर पर्यवास्तु सर्वत्र प्राग्वत्। . पर पर्याय तो सर्वत्र पूर्ववत् हैं। , अष्टाप्येतानि तुल्यानि व्यपेक्ष्य स्वान्यपर्यवान् । . यद्वक्ष्येऽल्प बहुत्वं तदपेक्ष्य स्वीय पर्यवान् ॥१०३८।। पांच ज्ञान और तीन अज्ञान मिलकर आठ, स्व और पर पर्याय की अपेक्षा से समान हैं और अब उनका अल्प-बहुत्व कहेंगे । वह केवल'स्व पर्याय की अपेक्षा से कहा जायेगा। (१०३८) तत्र स्युः स्वतः स्तोका मन: पर्याय पर्यवाः । मनो द्रव्यैक विषयमिदं ज्ञानं भवेद्यतः ॥१०३६।। मनः पर्यव ज्ञान के पर्याय सर्व से कम है क्योंकि ज्ञान का विषय केवल मनो द्रव्य ही हैं। (१०३६) एभ्योऽनन्त .गुणाः किं च विभंग ज्ञान पर्यवाः । मनोज्ञानापेक्षया यद्विभंग विषयो महान् ॥१०४०॥ विभंग ज्ञान के पर्याय इससे अनन्त गुना हैं क्योंकि मनः पर्यव ज्ञान.की अपेक्षा से विभंग ज्ञान का विषय बड़ा है। (१०४०) आरभ्य नवम ग्रैवेयकादा सप्तम क्षितिम् । ऊर्ध्वाधः क्षेत्रके तिर्यक् चासंख्य द्वीप बार्धिके १०४१॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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