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(२६१) रूपि द्रव्याणि कति चित्तत्पर्यायांश्च वेत्ति सः । _____ अनन्तनास्ते च मनोज्ञान ज्ञेय व्यपेक्षया ॥१०४२॥ युग्मं।
विभंग ज्ञानी ऊँचे नौंवे ग्रैवेयक से लेकर नीचे सातवें नरक तक और तिर्यक असंख्य द्वीप समुद्र रूप में रहे रूपी पदार्थों को तथा इसके कुछ अल्प पर्यायों को जानता है । इसलिए पर्याय मनः पर्यव ज्ञानी के ज्ञेय की अपेक्षा से अनन्त गुणा हैं। (१०४१-१०४२)
समस्त रूपि द्रव्याणि प्रति द्रव्यमसंख्यकान् । भावान वेत्तीत्यनन्तना विभंगापेक्षयावधौ ॥१०४३।।
अवधि ज्ञानी सर्व रूपी पदार्थों को तथा प्रत्येक पदार्थ के असंख्य भावों को जानता है, इसलिए विभंग ज्ञान की अपेक्षा से अवधि ज्ञान के पर्याय अनन्त हैं। (१०४३)
अनन्त गुणितास्तेभ्यः श्रुत ज्ञान इदं यतः ।। सर्वमूर्तामूर्त द्रव्य सर्व पर्याय गोचरम् ॥१०४४॥ .
इससे भी अनन्त गुना श्रुत ज्ञान के पर्याय हैं, क्योंकि मूर्त-अमूर्त सर्व द्रव्य के पर्याय श्रुत अज्ञान का विषय हैं। (१०४४) .: श्रुताज्ञाना विषयाणां केषांचित् विषयत्वतः ।
स्पष्टत्वाच्च श्रुतज्ञाने. तेभ्यो विशेषतोऽधिकाः ॥१०४५॥ . : श्रुत ज्ञान के पर्याय, श्रुत अज्ञान का अविषय कितने पर्यायों का विषय भी होने से तथा स्पष्ट होने से, विशेष अधिक होते हैं। (१०४५) - अभिलाप्यानभिलाप्य विषयेऽनन्त संगुणाः ।
मत्य ज्ञाने श्रुत ज्ञानाद मिलाप्यैकगोचरात् ॥१०४६॥ . केवल वचन गोचर श्रुत ज्ञान से मति अज्ञान के पर्याय अनन्त गुणा हैं । क्योंकि मति अज्ञान का विषय वचन गोचर तथा वचन अगोचर दोनों है, इसलिए पर्याय अनन्त गुणा हैं। (१०४६)
मतिज्ञान पर्यवाश्च ततोविशेषतोऽधिकाः ।
मत्यज्ञाना विषयाणां विषयत्वात् स्फुटत्वतः ॥१०४७॥ . . इससे भी विशेष अधिक मति ज्ञान के पर्याय हैं, क्योंकि मति अज्ञान के __ अविषय पदार्थ भी इसके विषय में आते हैं और वे स्पष्ट भी हैं। (१०४७)