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इत्यादि प्रायः अर्थत: तत्त्वार्थ भाष्य वृत्ति सम्भवः। अब प्रस्तुत विषय पर कहते हैं- अर्हत् प्रभु को ज्ञान और दर्शन- इन दो के उपरांत तीसरा उपयोग तो कहा नहीं है तब उनको मति ज्ञान आदि कहां से संभव हो सकता है? (६८२)
इत्यादि अर्थ का विस्तार प्रायः तत्त्वार्थ भाष्य की वृत्ति में है वहां से जान
लेना । :
अथ ज्ञान स्थितिढेधा प्रज्ञप्ता परमेश्वरैः । साद्यनन्ता सादि सान्ता तत्राद्या केवल स्थितिः ॥६८३॥ शेष ज्ञानानां द्वितीया तत्राद्य ज्ञानयोलघुः ।
अन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टा षट्षष्टिः सागराणि च ॥६८४॥ युग्मं। . अब ज्ञान की स्थिति के विषय में कहते हैं। जिनेश्वर भगवान ने ज्ञान की · स्थिति दो प्रकार की कही है- १- सादि अनन्त और २- सादि सान्त । केवल ज्ञान की स्थिति सादि अनन्त है और अन्य चार की सादि सान्त है। पहले दो ज्ञान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट स्थिति छियासठ सागरोपम की है । (६८३-६८४) - इयं चैवम् .... त्रयस्त्रिंशत्वार्धिमानौ भवौ द्वौ विजयादिषु ।
. द्वाविंशत्यब्धि मानान् वा भवांस्त्रीनच्युतादियु ॥६८५॥ .. कृव्योत्कर्षात् शिवं यायात् सम्यकत्वमथवा त्यजेत् ।
सातिरेका नर भवैः षट्षष्टिार्धियस्तदा ॥६८६॥ युग्मं।
वह इस तरह से- विजय आदि में तैंतीस-तैंतीस सागरोपम के दो जन्म अथवा अच्युत देवलोक आदि में बाईस-बाईस - सागरोपम के तीन जन्म लेकर उत्कृष्ट मोक्ष प्राप्त करता है अथवा समकित का वमन कर देता है तब मनुष्य जन्म द्वारा छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक काल होता है । (६८५-६८६) यदाहुः- दो बारे विजयाइसु गयस्स तिनचुए अहव ताई।
अइरेगं नरभवियं नाणा जीवाण सव्वद्धं ॥१॥ . शास्त्रों में कहा है कि- दो बार विजय आदि में जाने से अथवा तीन बार अच्युत देवलोक आदि में जाने से छियासठ सागरोपम काल होता है। उसमें मनुष्य जन्म की स्थिति अधिक गिनने से तो कुछ अधिक काल होता है। नाना प्रकार के जीवों की अपेक्षा से यह ज्ञान सर्व काल में होता है। (१)