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अथोत्कृष्टावधिज्ञान स्थितिरेषैव वर्णिता । जघन्या चैक समयं सा त्वेवं परिभाव्यते ॥ ६८७॥
यदा विभंगक ज्ञानी सम्यकत्वं प्रतिपद्यते । तदा विभंगक समये तस्मिन्नेववधिर्भवेत् ॥६८॥ क्षणे द्वितीये तद् ज्ञानं चेत्पतेन्मरणादिना । तदा जघन्या विज्ञेयावधिज्ञान स्थितिर्बुधैः ॥ ६८६ ॥
अवधि ज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति उतनी ही- छियासठ सागरोपम की होती है। इससे जघन्य स्थिति एक समय की है। वह इस प्रकार - जब विभंग ज्ञानी समकित प्राप्त करता है तब विभंग के समय में ही उसे अवधि ज्ञान होता है। यदि मृत्युकाल आदि के कारण दूसरे क्षण में उस ज्ञान से गिरे तो अवधि ज्ञान की जघन्य स्थिति होती है। (६८७-६८८)
संयतस्याप्रमत्तत्वे वर्तमानस्य कस्यचित् ।
मनोज्ञानं समुत्पद्य द्वितीय समये पतेत् ॥६६०॥ एव मनः पर्यवस्य स्थितिर्लध्वी क्षणात्मिका । देशोनापूर्व कोटी तु महती सापि भाष्यते ॥ ६६१ ॥
अप्रमत्त रूप में रहे किसी संयति (संयमी) को मन: पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ
दूसरे ही क्षण में गिरता है। ऐसा कभी होता है, इसके कारण से इसकी जघन्य स्थिति एक समय की कहलाती है। जबकि इसकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कोटि से कुछ कम कहलाती है । (६६०-६६१)
पूर्व कोटयायुषो दीक्षा प्रतिपत्तेरनन्तरम् । मनोज्ञाने समुत्पन्ने भावज्जीवं स्थिते च सा ॥६६२॥
स्थितिर्लध्वी ऋजुमति मनोज्ञान व्यपेक्षया ।
अन्यत्त्व प्रतिपातित्वादा कैवल्यं हि तिष्ठति ॥६६३॥ युग्मं ।
किसी पूर्व कोटि के आयुष्य वाले जीव को दीक्षा स्वीकार करने के बाद मनः पर्यव ज्ञान• उत्पन्न हो और यावत्जीव तक रहे, उस जीव की उत्कृष्ट स्थिति पूर्व कहे के अनुसार पूर्व कोटि से कुछ कम रहती है और जघन्य स्थिति एक समय की कही है। यह ऋजुमति मनः पर्यव ज्ञान की अपेक्षा से कहा है । विपुलमति मनः पर्यव ज्ञान तो अप्रतिपाती होने से केवल ज्ञान की प्राप्ति तक रहता है। (६६२-६६३)