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________________ ( २५०) यह अभिप्राय सिद्धान्तवादियों का है । तर्क शास्त्रियों में तो कई इस तरह कहते हैं कि अर्हत् परमात्मा को एक ही समय में दोनों अच्छी तरह से हो सकते हैं, यदि इस तरह न हो तो एक उपयोग, कर्म के समान अन्य उपयोग का द्रोह करके उसे रोक सकते हैं और इन दोनों उपयोगों की सादि अनन्त स्थिति कही है, यह भी एक-एक समय के अन्तर में उदय में नहीं आने से व्यर्थ होती है। (६७७ से ६७६) अन्ये च के चन प्राहुः ज्ञान दर्शनयोरिह । .. नास्ति केवलिनो भेदो निःशेषावरण क्षयात् ॥६८०॥ ज्ञानैक देशः सामान्य मात्र ज्ञानं हि दर्शनम् । तत्कथं देशतो ज्ञानं सम्भवेत्सर्ववेदिनः ॥६८१॥ और अन्य कई इस प्रकार कहते हैं कि केवल ज्ञानी का तो आवरण मात्र ही क्षीण हो गया है तो उनको ज्ञान और दर्शन का भेद किसलिए है ? तथा ज्ञान का एक देश रूप सामान्य मात्र ज्ञान से दर्शन है तो फिर सर्ववेदी (सर्वज्ञ) को 'देशत:'- देश से अर्थात् विभागमात्र ज्ञान कैसे संभव हो सकता है ? (६८०-६८१) उक्तं च.... केइ भणंति जुगवंजाणइपासइय केवली नियमा। अन्ने एगंतरियं इच्छन्ति सुओवंए सेणं ॥१॥ अन्ने वचेव वीसुदंसणमिच्छन्ति जिणवरिन्दस्या।. .. जं चियं केवल नाणं तं चिय से दंसणं बिंति ॥२॥ कहा है कि-कइयों के मतानुसार केवल ज्ञानी निश्चय से एक साथ में ही जानते हैं और देखते हैं तथा कई लोग तो श्रुत का आधार देकर कहते हैं कि ज्ञान व दर्शन दोनों एकान्तरिक हैं तथा अन्य कई जिन प्रभु का भिन्न दर्शन मानते नहीं हैं, परन्तु जो केवल ज्ञान है यही दर्शन है- इस तरह कहते हैं । (१-२) . "अत्र च भूयान् युक्ति सन्दर्भः अस्ति। स तु. नन्दी वृत्ति सम्मत्यादिभ्योऽवसेयः॥" इस सम्बन्ध में अनेक युक्ति प्रयुक्ति लेख हैं। वह सर्व नन्दी सूत्र वृत्ति, सम्मति तर्क आदि ग्रन्थों में से जान लेना चाहिए। अथप्रकतम्विनैताभ्यांपरः कश्चिन्नोपयोगोऽहं तां मतः । ततः कथं भवेत्तेषां मत्यादि ज्ञान सम्भवः ॥६८२॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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