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________________ (२४६) उत्पन्न होते हैं और अन्तिम पांचवां केवल ज्ञान क्षायिक होता है। इस तरह अलग-अलग प्रकार होने से पांचवां अकेला वास होना उचित नहीं है। (६७० से ६७२) कटे सत्युपकल्प्यन्ते जालकान्यन्तरान्तरा ।। मूलतः कटनाशे तु तेषां व्यवहतिः कुतः ॥६७३॥ दृष्टान्त रूप में एक चटाई लें, वह किसी स्थान पर अस्तित्व में हो तो उसके बीच-बीच में जालियां होने की कल्पना कर सकते हैं, परन्तु यदि मूल में चटाई नहीं होती तो फिर जालियों की कल्पना करने की जरूरत ही कहां से हो सकती है ? (६७३) किं च.....ज्ञान दर्शनयोरेवोपयोगौस्तो यथाक्रमम् । अशेष पर्याय द्रव्य बोधिनोः सर्ववेदिनः ॥६७४॥ एकस्मिन् समये ज्ञान दर्शनं चापरक्षणे । सर्वज्ञस्योपयोगौ द्वौ समयान्तरितौ सदा ॥६७५॥ तथा सर्वज्ञ परमात्मा को अशेष द्रव्य और इसके पर्यायों का बोध कराने वाले ज्ञान तथा दर्शन का उपयोग अनुक्रम से ही होता है अर्थात् एक समय में ज्ञान होता है और दूसरे समय में दर्शन होता है। इस तरह सदा दोनों का उपयोग अलग-अलग समय में होता है। (६७४-६७५) • तथाहुः....नाणंमि दंसणमि य एतो एक्क तरयंमि उवउत्ता। . सव्वस्स केवलिस्सवि जुगवंदो नत्थि उवओगा ॥६७६॥ तथा आगम में कहा है कि- ज्ञान और दर्शन इन दो में से एक समय के अन्दर एक में ही सर्व केवलिया उपयोग वाले होते हैं, एक साथ में दोनों में उपयोग नहीं होता है । (६७६). इदं सैद्धान्तिक मतं तार्किकाः के चनोचिरे। स्यातामेवोपयोगी द्वापेकस्मिन् समयेऽर्हतः ॥६७७॥ अन्यथा कर्मणा इव स्यादावा कता मिथः । एकै कस्योपयोगस्यान्योपयो गोदय द्रुहः ॥६७८॥ यच्चैतयोः साद्यनन्ता स्थितिरुक्तोपयोगयोः । व्यर्थास्यात्साप्यनुदयादेकै क समयान्तरे ॥६७६॥ .
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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