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(२४८) मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों एक साथ में होते हैं, वैसे ही उन दोनों के साथ में अवधि ज्ञान अथवा मनः पर्यव ज्ञान भी होता है। इस तरह होने से तीनों भी एक साथ होते हैं तथा केवल ज्ञान होने के पहले छद्मस्थ रूप में श्रमण मुनि में चारों का सहभाव भी होता है। पांच ज्ञान के सहभाव के सम्बन्ध में दो मत हैं। (६६४-६६५)
केचिदूचुर्न नश्यन्ति यथार्के ऽभ्युदिते सति ।। महांसि चन्द्र नक्षत्र दीपादीन्यखिलान्यपि ॥६६६॥ भवन्त्यकिंचित्कराणि किन्तु प्रकाशनं प्रति । .. . छाद्यस्थिकानि ज्ञाननि प्रोद्भूते केवले तथा ॥६६७॥ युग्म्।। ततो न केवले नैषा सह भावो विरूध्यते ।।
अव्यपारान्निप्फलानामप्यक्षाणामिवार्ह ति ॥६६८॥ .
कईयों का इस तरह कहना है कि- जैसे सूर्य का अभ्युदय होने पर भी चन्द्र, नक्षत्र, दीपक आदि होते हैं लेकिन उसका प्रकाश बहुत नहीं होता, वैसे केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर चारों छाद्यस्थिक ज्ञानों का भी सहभाव तो रहता है, केवल ज्ञान के साथ में उसके सहवास में कोई विरोध नहीं आता, अर्हत्प्रभु में अव्याप्त होने से निष्फल रही इन्द्रिय के समान समझना । (६६६ से ६६८) - अन्ये त्वाहुर्न सन्त्येव केवल ज्ञान शालिनि ।
छाद्गस्थिकानि ज्ञानानि युक्तिस्तत्राभिधीयते ॥६६६॥
अन्य और कोई इस तरह कहते हैं कि- केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर छाद्यस्थिक ज्ञान नहीं रहता वे अपने मतानुसार इस तरह युक्ति कहते हैं। (६६६)
अवाय सद्रव्याभावात् मतिज्ञानं न सम्भवेत् । न श्रुत ज्ञानमपि यत्तन्मतिज्ञान पूर्वकम् ॥६७०॥ रूपि द्रव्यैक विषयै न तृतीय तुरीयके । लोकालोक विषयक ज्ञानस्य सर्ववेदिनः ॥६७१॥ क्षयोपशम जान्यन्यान्यन्त्यं च क्षायिकं मतम् । सह भावस्तदेतेषां पंचनामेति नैचितीम् ॥६७२॥
अपाय रूपी सद् द्रव्य का अभाव होने से मति ज्ञान संभव नहीं है और मति ज्ञान के बिना श्रुत ज्ञान भी संभव नहीं है। जिसे एक रूपी द्रव्यमात्र ही विषय है उसे तीसरा और चौथा ज्ञान भी संभव नहीं है क्योंकि पांचवें ज्ञान वाला-सर्ववेदी प्रभु में लोकालोक सर्व विषयक ज्ञान है। अन्तिम के अलावा चारों ज्ञान क्षयोपशम से