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अतएव एकेन्द्रियाणामपि श्रुतज्ञान स्वीकृतं श्रुते ॥
इसी आधार पर ही आगम में 'एकेन्द्रिय जीव में भी श्रुत ज्ञान होता है' इस तरह स्वीकार किया है। यथा.... जह सुहुमं भाविंदिय नाणं दव्विंदियावरोहे वि ।
द्रव्यसुआ भावंमि विभाव सुअं पत्थिवाइंणं ॥१॥ कहा है कि- जैसे द्रव्येन्द्रिय का अवरोध हुआ हो फिर भी सूक्ष्म भावेन्द्रिय का ज्ञान होता है, वैसे द्रव्य श्रुत का अभाव होने पर भी पृथ्वी आदि में भाव श्रुत होता है। (१) .
"भावेन्द्रियोपयोगश्च बकुलादिवत् एकेन्द्रियाणां सर्वेषां भाव्यः॥"
और भाव इन्द्रियों का उपयोग तो बकुल आदि के समान सर्व एकेन्द्रियों में होता है। इस तरह समझना।. .. _ "तथा मलयगिरि पूज्या अप्याहुः नन्दी वृत्तौ-यद्यपि तैषां एकेन्द्रियादीनां परोपदेश श्रवणा सम्भवः तथापि तेषाविध क्षयोपशम भावतः कश्चित् अव्यक्तः अक्षर लाभो भवति।यद्वशात् अक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानं उपजायते।इत्थं चैतदंगी कर्त्तव्यम् तेषामपि आहाराद्यभिलाष उपजायते ।अभिलाषश्च प्रार्थना।साच यदीदमहं प्राप्नोमि तदा भव्यं भवतीत्याद्यक्षरानु विद्वैव । ततस्तेषामपि काचित् अव्यक्ताक्षरोपलब्धिः अवश्यं प्रतिपत्तव्या॥" इति।
पूज्यपाद आचार्य श्री मलयगिरि ने भी नन्दी सूत्र की टीका में कहा है कि: ‘इन एकेन्द्रिय जीवों को अन्य के उपदेश से कर्ण गोचर होना असंभावित है फ़िर भी किसी प्रकार के क्षयोपशम के कारण उनको कुछ अव्यक्त अक्षर लाभ तो होता है और इसके कारण अक्षर रूप श्रुत ज्ञान भी आता है। इस बात को स्वीकार इस तरह करना कि- इनको भी आहार आदि की अभिलाषा होती है
और अभिलाषा अर्थात् प्रार्थना और वह प्रार्थना भी यह वस्तु यदि मुझे मिल जाय तो बहुत अच्छा है' इत्यादि अक्षर संयुक्त ही है, तब इसके कारण से इन एकेन्द्रिय जीवों को भी कुछ अव्यक्त अक्षर की अवश्य प्राप्ति होती है- ऐसा समझना।'
मति ज्ञान श्रुत ज्ञान रूपे द्वे भवतः सह । त्रीणि ते सावधिज्ञाने समनः पर्यवे तु वा ॥६६४॥ चतुर्णा सहभावोऽपि छद्मस्थश्रमणे भवेत् । पंचानां सहभावे तु मत द्वितयमुच्यते ॥६६५॥