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________________ (२४४) यथाभिहितम्साकारः प्रत्ययः सर्वो विमुक्तः संशयादिना । साकारार्थ परिच्छेदात्प्रमाणं तन्मनीषिणाम् ॥६४६॥ सामान्यैक गोचरस्य दर्शनस्यात एव च । न प्रामाण्यं संशयादेरप्येवं न प्रमाणता ॥६५०॥ अत एव मतिज्ञाने सम्यक्त्व दलिकान्वितः । योऽवायांशः स प्रमाणं स्यात्पौदलिक सद् दृशाम् ॥५१॥ प्रक्षीण सप्तकानां चावायांश एव केवलः । प्रमाणमप्रमाणं चावग्रहाद्या अनिर्णयात् ॥६५२॥ कहा है कि- साकार प्रत्यय सर्व संशय रहित है और साकार पदार्थ के परिच्छेद से बुद्धिमानों ने इसे प्रमाण रूप माना है और इसी कारण से ही केवल एक सामान्य को ही गोचर दर्शन प्रमाण रूप नहीं गिना जाता है तथा संशय आदि भी प्रमाण रूप नहीं गिना जाता है। इसीलिए ही मतिज्ञान में सम्यकत्व के दल (समूह) वाला जो अवायांश है वह पुद्गलिक निर्मल दृष्टि वालों का प्रमाण रूप है और जिसकी सर्व-सातों प्रकृतियां क्षीण हुई हों उनकी केवल अवायांश ही प्रमाणभूत हैं, परन्तु अवग्रह आदि तो अनिर्णय के कारण अप्रमाणभूत हैं। (६४६-६५२) ______ अयं च तत्त्वार्थ वृत्याद्यभिप्रायः॥ इस तरह का तत्वार्थ वृत्ति आदि का अभिप्राय है। "रत्नावतारिकादौ च मति ज्ञानस्य तद् भेदानां अवग्रहादीनां च सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाणत्वमुक्तम्।तथा चतद् तद्ग्रन्थः अवग्रहश्च ईहाच अवायश्च धारण च ताभिः भेदः विशेषः तस्मात् प्रत्येकं इन्द्रियानिन्द्रिय निबन्धनं प्रत्यक्षं चतुर्भेदम्। इति॥" रत्नावतारिका में तो मतिज्ञान को और उसके अवग्रह आदि भेदों को व्यवहारिक प्रत्यक्ष प्रमाण गिना है । इस ग्रन्थ में कहा है कि- इहा, अवग्रह, अवाय और धारणा- ये चारों अलग-अलग भेद हैं । इससे प्रत्येक इन्द्रिय के और अनिन्द्रिय के कारण रूप जो प्रत्यक्ष प्रमाण हैं वह चार प्रकार के हैं । श्रुतज्ञानेऽप्यवायांशः प्रमाणमनया दिशा । निमित्तापेक्षणादेते परोक्षे इति कीर्त्तिते ॥६५३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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