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________________ (२४३) भाव को कुछ जानता है और देखता है । जैसे कि- दिशाओं को मानो पवित्र करने के लिए जल उडाता शिव राजर्षि विभंग ज्ञान के कारण सात द्वीप समुद्र को जानता था, परन्तु फिर संदेह में पड़ गया और श्री वीर परमात्मा के पास असंख्य द्वीप समुद्र की बातें सुनकर उसकी शंका का समाधान हुआ और दीक्षा लेकर मोक्ष में गया । (६४१ से ६४३) इंदं पंचविधं ज्ञानं जिनैर्यत्परिकीर्तितम् । . तद् द्वे प्रमाणे भवतः प्रत्यक्षं च परोक्षकम् ॥६४४॥ श्री जिनेश्वर भगवान् ने जो यह पांच प्रकार का ज्ञान कहा है वह दो प्रमाण रूप है; १- प्रत्यक्ष प्रमाण और २- परोक्ष प्रमाण । (६४४) स्वस्य ज्ञानस्वरूपस्य घटादेयत्परस्य च । निश्चायकं ज्ञानमिह तत्प्रमाणमिति स्मृतम् ॥६४५॥ यदाहुः- स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् । इति॥ ज्ञान रूप अपनी आत्मा को तथा घटादि रूप पर को निश्चय करने वाला जो ज्ञान है उसे यहां प्रमाण रूप समझना चाहिए। (६४५) ... क्योंकि कहा है कि 'स्वपर व्यवसायि ज्ञानम् प्रमाणम्' ऐसी उक्ति है। तत्रेन्द्रियानपेक्षं यजीवस्यैवोपजायते । . तत्प्रत्यक्षं प्रमाणं स्यादन्त्य ज्ञानत्रयात्मकम् ॥६४६॥ इन्द्रियों की अपेक्षा बिना ही जो जीव को उत्पन्न होता है वह प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाण है और अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । (६४६) .... इन्द्रियैहे तुभिः ज्ञानं यदात्मन्युपजायते । तत्परोक्षमिति ज्ञेयमाद्य ज्ञान द्वयात्मकम् ॥६४७॥ इन्द्रिय रूप हेतु द्वारा आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह दूसरा परोक्ष प्रमाण है। पहले दो ज्ञान भी परोक्ष प्रमाण हैं । (६४७) प्रत्यक्षे च परोक्षे चावायांशो निश्चयात्मकः । .. यः स एवात्र साकारः प्रमाणव्यपदेश भाक् ॥६४८॥ प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण में जो निश्चयात्मक अवाय का अंश है, यही प्रमाण नामक साकार है । (६४८)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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