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________________ (२४५) परोक्षं हनलज्ञानं धूमज्ञान निमित्तकम् । लोके तद्वदिमे ज्ञेये इन्द्रियादि निमित्तके ॥६५४॥ इदं च निश्चय नयापेक्षया व्यपदिश्यते । प्रत्यक्षव्यपदेशोऽपि व्यवहारान्मतोऽनयोः ॥६५५॥ इस तरह श्रुत ज्ञान में भी अवायांश प्रमाणभूत कहलाता है। पूर्व में मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान दोनों को परोक्ष कहा है, यह निमित्त की अपेक्षा के कारण कहा है; जैसे धुएं के ज्ञान रूप निमित्त वाला अग्नि का ज्ञान परोक्ष है वैसे ही लोक में मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान को भी इन्द्रियादिक निमित्त होने से, ये दोनों परोक्ष हैं यह सार कहा गया है, वह निश्चय नय की अपेक्षा से कहा है। व्यवहार में तो दोनों को प्रत्यक्ष प्रमाण भी कहा है । (६५३ से ६५५) तथोक्तं नन्द्याम- "तं समासओ दुविहं पणत्तं। तं इंदियपच्चखं च नोइन्द्रिय पच्चख्खं च इत्यादि।" .. इस प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में नन्दी सूत्र में कहा है कि- 'प्रत्यक्ष दो प्रकार का है, १- इन्द्रिय प्रत्यक्ष और २- नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष ।' ननु च ...... प्रत्यक्षमनुमानं चागमश्चेति त्रयं विदुः । .. प्रमाणं कपिला आक्षपादास्तत्रोपमानकम् ॥६५६॥ मीमांसकाः षड्र्थापत्यभावाभ्यां सहोचिरे । द्वे त्रीणि वा काण भुजा द्वे बौद्धा आदितो विदुः ॥६५७॥ एकं च लौकायतिका प्रमाणानीत्यनेकथा । परैरुक्तानि किं तानि प्रमाणान्यथवान्यथा ॥६५८॥ ... यहां प्रमाण के सम्बन्ध में शिष्य प्रश्न करता है कि-कपिल मुनि के मतानुसार प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम- ये तीन प्रमाण माने हैं । अक्षपाद के मत में ये तीन और एक चौथा 'उपमान' अधिक है। मीमांसको के मत में इन चार के उपरांत पांचवां अर्थोपति और छठा अभाव - इस तरह छह हैं। कणाद ऋषि के मतानुसार पहले दो या तीन हैं, बौद्ध के मत में प्रथम के दो और नास्तिक के मत में केवल एक प्रत्यक्ष है। इस तरह प्रत्येक मत वालों ने अनेक प्रमाण माने हैं तो वे * सर्व सत्य मानने या असत्य मानने चाहिए । (६५६ से ६५८)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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