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________________ (२१८) इसका श्रुत नाश होता है अथवा मिथ्यात्व प्राप्ति आदि कारणों को लेकर उसी जन्म में भी नष्ट होता है । (८११) तदुक्तं विशेषावश्यके: चउदसपुव्वी मणुओ देवत्ते तं न संभरइ सव्वम् । देसंमि होइ भयणा सट्ठाण भावे विभयणाओ ॥१॥ इस विषय में विशेष आवश्यक सूत्र में कहा है कि चौदह पूर्वधारी को देवता के जन्म में यह सर्व (चौदह पूर्व) स्मरण में नहीं रहता है- उसकी विस्मृति हो जाती है। अल्पभाग का स्वस्थान भाव में कुछ स्मरण रहे अथवा नहीं भी रहता है। देशे पुनरेकादशांग लक्षणे इति कल्पचूर्णिः । स्वस्थान भावे इति मनुष्य भवेऽपि तिष्टतः भजना॥ . "अल्प भाग अर्थात् ग्यारह अंग ही, अन्य नहीं" इस तरह कल्पचूर्णि में कहा है। स्वस्थान भाग में अर्थात् मनुष्य जन्म में रहने पर। स्मरण रहता है या नहीं भी रहता है। - तत्र श्रुत ज्ञान नाश कारणानिअमूनिमिच्छभवंतर केवलगेलन्नपमाम माइणा नासोत्ति ॥ __ श्रुतज्ञान का नाश होने के कारण मिथ्यात्वं, भवान्तर, केवल ज्ञान, पाठ याद नहीं, व प्रमाद आदि हैं। _ “षष्टांग चतुर्दशाध्ययने तु तेतलि मन्त्रिणा पूर्वधीत चतुर्दशपूर्व स्मरणमुक्तमस्तीति ज्ञेयम् ॥" छठे अंग के चौदहवें अध्ययन में तो इस तरह कहा है कि पूर्व में सीखा हुआ चौदह पूर्व का तेतली मन्त्रि का स्मरण रहा था। साद्यन्तं क्षेत्रतो ज्ञेयं भरतैरवताश्रयात् । अनाद्यपर्यवसितं विदेहापेक्षया पुनः ॥१२॥ यह श्रुत है, उस क्षेत्र से भरत और ऐरवत की अपेक्षा से साद्यन्त है और महाविदेह की अपेक्षा से अनादि अनंत है । (८१२) कालतश्चावसर्पिण्युत्सर्पिण्योः सादि सान्तकम् । महाविदेह कालस्यापेक्षयाद्यन्त वर्जितम् ॥८१३॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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