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नहीं है इसलिए संसार का हेतु है । अतः यद्दच्छा में कहा है- इस कारण से
और ज्ञान के फल का अभाव है अतः मिथ्या दृष्टि का श्रुत सर्व अज्ञान रूप है। यह गाथा पूर्वान्तर्गत है।
ऋग् यजुः सामाथर्वाणो वेदा अंगानि षट् पुनः। शिक्षा कल्पौ व्याकरण छन्दो ज्योतिर्निरुक्तियः ॥८०५॥ ततश्च......षडंगी वेदाश्चत्वारो मीमांसान्विक्षिकी यथा।
धर्मशास्त्रं पुराणं च विधा एताश्चतुर्दश ॥८०६॥ तथा...... आयुर्वेदो धनुर्वेदो गान्धर्व चार्थशास्त्रकम् । - चतुर्भिरेतैः संयुक्ताः स्युरष्टादश ताः पुनः ॥८०७॥
ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थर्ववेद, ये चार वेद हैं और छह अंग कहे हैं- १- शिक्षा, २- कल्प, ३- व्याकरण,४- छंद, ५- ज्योति और ६- निरुक्ति। ये छः अंग, चार वेद, मीमांसा, आन्विक्षिकी धर्मशास्त्र तथा और पुराण मिलकर चौदह विद्या कहलाती हैं तथा आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्व और अर्थशास्त्र इन चार को मिलाकर गिनें तो अठारह विद्या कहलाती हैं । (८०५ से ८०७). - अपूर्णदश पूर्वान्तमपि सम्यक श्रुतं भवेत् ।
मिथ्यात्विभिः संगृहीतं मिथ्या श्रुतं विपर्ययात् ॥८०८॥ .. दश पूर्व सम्पूर्ण न किए हों ऐसा सम्यक् श्रुत भी यदि मिथ्या दृष्टि को हो ..तो वह विपर्यय करण मिथ्या श्रुत कहलाता है । (८०८)
द्रव्य क्षेत्र काल भावैः साद्यन्तं भवति श्रुतम् । अनाद्य पर्यवसितमपि ज्ञेयं तथैव च ॥८०६॥ एकं पुरुषमाश्रित्य साद्यन्तं भवति श्रुतम् । .अनाद्यपर्यवसितं भूय सस्तान् प्रतीत्य च ॥१०॥
श्रुतं सादि सांत् भी होता है वैसे अनादि अनंत भी होता है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव एक पुरुष के आश्रित सादि सान्त (साद्यन्त) कहलाता है और अनेक के आश्रित को अनादि अन्त (अनाद्यन्त) होता है । (८०६-८१०)
भवान्तरं गतस्याश पंसो यत्रश्यति श्रुतम् । कस्यचित्तद् भव एव मिथ्यात्वगमनादिभिः ॥८११॥ इस कारण अथवा कोई पुरुष जब अन्य जन्म धारण करता है तब