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________________ ( १५० ) इन्द्रियों को अपना अपना कार्य क्षेत्र बताने वाली जो विशिष्ट शक्ति है उसे ही श्री तीर्थंकर परमात्मा ने उपकरण - इन्द्रिय कहा है । (४७६) तदुक्तं प्रज्ञापनावृत्तौ - "उपकरणम्। खड्ग स्थानीयायाः बाह्य निर्वृत्तेः या खड्गधारा समाना स्वच्छतर पुद्गल समूहात्मिका अभ्यन्तरा निर्वृत्तिः तस्याः शक्ति विशेष इति ॥ " प्रज्ञापना सूत्र में 'उपकरण' का अर्थ इस तरह कहा है- 'खड्ग समान बाह्य आकृति वाली इन्द्रिय है, खड्ग धारा समान और अत्यन्त निर्मल पुद्गल समूह रूप अभ्यन्तर आकृति की विशिष्ट शक्ति को उपकरणेन्द्रिय कहा है ।' 1 आचारांग वृत्तौ तु- ‘“निर्वृत्यते इति निर्वृत्तिः । केन निर्वृत्यते ? कर्मणा । तत्र उत्सेधांगुलासंख्येय भाग प्रमितानां शुद्धानां आत्म प्रदेशानां प्रति नियत चक्षुरादीन्द्रिय संस्थानेनाव स्थितानां या वृत्तिः अभ्यन्तरा निर्वृत्तिः ॥ तेष्वेवात्म प्रदेशेष्विन्द्रिय व्यपदेश भाग यः प्रति नियत संस्थानः निर्माणनाम्ना पुद्गल विपाकिना वर्द्धकी संस्थानीयेन आरचितः कर्ण शष्कुल्यादि विशेषः अंगोपांग नाम्ना तु निष्पादितः इति बाह्य निर्वृत्तिः ॥ तस्या एव निर्वृत्तेः द्विरूपाया: येनोपकारः क्रियते तद् उपकरणम ॥ तच्च इन्द्रिय कार्यं सत्यामपि निर्वृत्तौ अनुपहतायामपि मसूराद्याकृतिरूपायां निर्वृत्तौ तस्योपधातात् न पश्यति ॥ तदपि निर्वृत्तिवत् द्विधा इति ॥" आचारांग सूत्र की वृत्ति में इस तरह कहा है- 'इन्द्रिय की आकृति कर्म बनाता है । इसमें उत्सेधांगुल के असंख्यवें विभाग समान निश्चय आकृति वाली चक्षु आदि इन्द्रिय रूप रही हैं, शुद्ध आत्म प्रदेशों की वृत्ति यह अभ्यन्तर निर्वृत्ति है । यही आत्म प्रदेशों में इन्द्रिय नामाभिधान वाली पुद्गल विपाकी कर्ण छिद्र आदि निश्चय आकार की रचना है। यह सूत्रधार के समान निर्माण नामकर्म से रचना होती है और जो अंगोपांग नाम कर्म द्वारा रचना हुई आकृति है, वह बाह्य निर्वृत्ति समझना। इस तरह बाह्य और अभ्यन्तर- इस तरह दो प्रकार की निवृत्ति रूप उपकार को करने वाला उपकरण कहलाता है । वह इन्द्रियों का कार्य है । मशुरादि रूप वाली निर्वृत्तीन्द्रिय स्वयं अनुपहत होने पर भी इसका उपघात करके देख नहीं सकता है। इस इन्द्रिय का कार्य भी निर्वृत्ति के समान दो प्रकार का है ।' " एवं च प्रज्ञापना वृत्त्यभिप्रायेण स्वच्छतर पुद्गलात्मिका अभ्यन्तर निर्वृत्तिः । प्रथमांगवृत्यभिप्रायेण तु शुद्धात्म प्रदेश रूपा अभ्यन्तर निर्वृत्तिः । इति ध्येयम् ॥"
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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