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________________ ( १५१ ) 'इस तरह अन्तरंग आकृति पन्नवणा सूत्र के अभिप्राय से अत्यंत स्वच्छ पुद्गल रूप है और आचारांग सूत्र की वृत्ति के अभिप्राय से शुद्ध आत्म प्रदेश रूप इदमान्तर निर्वृत्तेर्न तूपकरणेन्द्रियम् । अर्थान्तरं शक्ति शक्तिमतोर्भेदात् कथंचन ॥४७७॥ जिस तरह शक्ति और शक्तिमान अलग नहीं होता, वैसे ही यह उपकरणेन्द्रिय अन्तरंग वृत्ति से किसी तरह अलग नहीं है। (४७७) कथंचित भेदश्चः तस्यामान्तर निर्वृत्तौ सत्यामपि पराहते । द्रव्यादिनोपकरणेन्द्रियेऽर्थाज्ञान दर्शनात् ॥ ४७८ ॥ इति द्रव्येन्द्रियम् ॥ कुछ भेद कहते हैं - वस्तुतः अभ्यन्तर निर्वृत्ति का सद्भाव होता है फिर भी उपकरणेन्द्रिय द्रव्यादि द्वारा पराघात होता है तो अर्थ का ज्ञान नहीं होता है । (४७८) इस तरह द्रव्य इन्द्रिय का स्वरूप कहा । द्विधा भावेन्द्रियमपि लब्धितश्चोपयोगतः । यथाश्रुतमथो वच्मि स्वरूपमुभयोरपि ॥ ४७६॥ अब भावेन्द्रिय का स्वरूप कहते हैं ।: यह दो प्रकार की है- १- लब्धि रूपं और २ - उपयोग रूप । ये दोनों भेद आगम सिद्धान्त में कहे हैं कहता हूँ । (४७६) 1 । उन्हें मैं जन्तो: श्रोत्रादि विषयस्तत्तदावरणस्य यः । स्यात् क्षयोपशमोलब्धि रूपं भावेन्द्रियं हि तत् ॥४८०॥ स्व स्व लब्ध्यनुसारेण विषयेषु य आत्मनः । व्यापार उपयोगाख्यं भवेद् भावेन्द्रियं च तत् ॥४८१॥ जीव को कर्णादि विषय वाले उस आवरण का यदि क्षयोपशम हो जाये तो वह लब्धि रूप भावेन्द्रिय कहलाती है और स्वयं अपनी लब्धि के अनुसार विषयों में जो आत्मा का व्यापार हो वह उपयोग रूप भावेन्द्रिय कहलाता है । (४८०-४८१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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