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________________ (१३६) यद्यपि स्युरन स्थीनामेतान्य स्थ्यात्मकानि न । तद् गत शक्ति विशेषस्तथाप्येषूपचर्यते ॥४०७॥ एके न्द्रियाणां सेवार्तं तमपेक्ष्यैव कथ्यते । जीवाभिगमानुसृतैः कैश्चिच्याद्यं सुधा भुजाम् ॥४०८॥ अस्थि रहित जीव के शरीर में अस्थि नहीं होती फिर भी इसमें रही अमुक प्रकार की विशिष्ट शक्ति के कारण उपचार से हड़ियां होती है, ऐसा कहलाता है और इस अपेक्षा से ही एकेन्द्रिय जीवों का संघयन सेवार्त्त कहलाता है,। कईयों ने जीवाभिगम सूत्र के आधार पर देवों को भी पहले प्रकार का संघनन कहा है । वह भी इसी ही अपेक्षा से कहा जाता है । (४०७-४०८) संग्रहणीकारैस्तु छः गम्भतिरिनराणं समुच्छिमपर्णिदिविगलछेवट्ठम् ।। सुरनेरइया एगिन्दियाय सव्वे असंघयणा ॥१॥ इत्युक्तम् ॥ इति संहननानि ॥१६॥ संग्रहणी ग्रन्थ के रचयिता ने तो इस तरह कहा है कि गर्भज, तिर्यंज और मनुष्य को छ: संघयण होते हैं, संमूर्छित पंचेन्द्रिय और विकेन्द्रिय को सेवार्त्त संघयन होता है तथा देव और नारकी जीव व एकेन्द्रिय इनको तो संघयन ही नहीं होता। (१) इस तरह उन्नीसवें द्वार संघयन का स्वरूप सम्पूर्ण हुआ। कषं संसार कान्तारमयन्ते यान्तियैर्जनाः । ते कषायाः क्रोधमान माया लोभा इति श्रुताः ॥४०६॥ अब बीसवें द्वार कषाय के विषय में कहते हैं- जिसके कारण मनुष्य को 'कष' अर्थात् संसार रूपी अटवी- जंगल में आय अर्थात् आवागमन करना पड़े, परिभ्रमण करना पड़े, जन्म मृत्यु के फेरे करने पड़ें उसका नाम कष् + आय = कषाय है। इस कषाय के चार भेद हैं- १- क्रोध,२- मान, ३- माया और ४- लोभ। (४०६) तत्र च - क्रोधोऽप्रीत्यात्मको मानोन्येऽर्ष्या स्वोत्कर्षलक्षणाः। मायान्यवंचनारूपा लोभस्तृष्णाभिगृध्नुता ॥४१०॥ और इसमें क्रोध निः स्नेहात्मक है अर्थात् जहां क्रोध होता है वहां से स्नेहप्रेम चला जाता है। अन्य की ईर्षा करना और अपनी बड़ाई-उत्कर्ष बताना, यह मान
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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