SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१३५) हड्डी पर एक तीसरी पट्टी के आकार की हड्डी लिपटी हो और ये तीनों हड्डी एक कील के आकार वाली हड्डी से बिंधकर दृढ़ बनी हों, ऐसा संघयन शरीर का अंग वज्र ऋषभ नाराच कहलाता है । (४००-४०१) अन्यदृषभनाराचं किलिका रहितं हि तत् । केचित्तु वज़ नाराचं पट्टोज्झितमिदं जगुः ॥४०२॥ २- जो पूर्व में कहा है, उसमें से कील न हो तो वह ऋषभ नाराच है । जिसे कई वज्र ऋषभ नहीं परन्तु वज्र नाराच कहते हैं, वहां वज्र नाराच अर्थात् पूर्व कहे अनुसार से पट्टी कम होती है । (४०२) अस्थ्नोर्मर्कट बन्धेन केवलेन दृढी कृतम् । आहुः संहननं पूज्या नाराचाख्यं तृतीयकम् ॥४०३॥ ३- दो हड्डी परस्पर मर्कट बन्धन से दृढ़ की हों, परन्तु उसमें कील या पट्टा कुछ भी न हो। वह संहनन नाराच कहलाता है । (४०३) बद्ध मर्कट बन्धेन यद्भवेदेक पार्श्वतः । अन्यतः कीलिकानद्धमर्ध नाराचकं हि तत् ॥४०४॥ . ४- एक ओर मर्कट बंध हो और दूसरी ओर से कील हो, इस तरह हड्डी वाला संहनन अर्ध नाराच कहलाता है । (४०४) तत्कीलिताख्यं यत्रास्त्रां केवलं कीलिका बलम् । अस्थ्नां पर्यन्तसम्बन्धरूपं सेवार्तमुच्यते ॥४०५॥ ५- जिस संघयण में केवल कील से हड्डी के साथ जोड़ हो वह संहनन कीलिका कहलाता है । तथा ६- जिसमें हड्डियों का परस्पर अन्तिम छेड़ा केवल मिला हो उसे सेवार्त संहनन कहते हैं । (४०५) सेवयाभ्यंगाद्यया वा रूतं व्याप्तं ततस्तथा । छेदैः खंडैमिथः स्पृष्टं छेद स्पृष्ट मतोऽथवा ॥४०६॥ सेवा अर्थात् लेप आदि द्वारा हड्डी का जोड़, आर्त अर्थात व्याप्त- मिला हो इससे सेवार्त्त कहलाता है यानि जिसमें हड्डी का केवल जोड़ हो वह सेवात है । उसे स्थान छेद स्पृष्ट भी कहते है। उस समय इसका अर्थ होता है - छेद अर्थात् खंड एक दूसरे से परस्पर स्पर्श करके-केवल स्पर्श जिसमें रहा हो वह यह संघयन कहलाता है । (४०६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy