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उत्पद्यन्ते नरेष्वेव देवानन्वानतादयः । नराश्च नक्षेत्र एव तदियं घटते कथम् ॥१७१॥
यहां कोई शंका करते हैं कि- अनंत देवलोक आदि के देव तो च्यवन करके मनुष्य लोक में ही उत्पन्न होते है और मनुष्य तो मनुष्य क्षेत्र में ही होता है, तो फिर जघन्य अवगाहना किस तरह हो सकती है ? (१७१) अत्रोच्यते- उपभुक्तां मनुष्येण मानुषीं पूर्ववल्लभाम् ।
उपलभ्यावधिज्ञानात्प्रेमपाशनियन्त्रितः ॥१७२॥ इहागत्यासन्नमृत्यु तया वृद्धि विपर्ययात् । मलिनत्वाच्च कामानां वैचित्र्यात्कर्ममर्मणाम् ॥१७३॥ गाढानुरागादालिंग्य तदवाच्य प्रदेशके । परिक्षिप्य निजावाच्यं म्रियते स्वायुषः क्षयात् ॥१७४॥ गर्भेऽस्या एव मृत्वायं यद्युत्पद्येत निर्जरः ।
आनतादि कतु भुजस्तदेयमुपद्यते ॥१७॥
यहां शंका का समाधान करते हैं कि- मनुष्य जीवन काल में भोगी हुई अपनी पूर्व जन्म की स्नेह वाली मनुष्यनी (स्त्री) को अवधि ज्ञान से जानकर कोई आनत आदि देव स्नेह के कारण आकृष्ट होकर यहां मनुष्य क्षेत्र में आकर और मृत्यु नजदीक होने के कारण बुद्धि में विपरीतता आने से, काम की दुष्ट वासना से तथा कर्मों की विचित्रता से. गाढ़ आलिगंन देकर उस स्त्री के अवाच्य प्रदेश में अपने अवाच्य अंश का क्षेपन-स्थापन करे और अपनी आयुष्य का क्षय होने के कारण मर जाये और इस तरह मृत्यु प्राप्त कर वह देव यदि उसी स्त्री के गर्भ में उत्पन्न हो तो उसकी यह जघन्य तेजस अवगाहना सुखपूर्वक घट सकती है। (१७२--१७५)
आनतादि क्रतुभजां मनोविषय सेविनाम् । काये नास्पृशतां देवीमपि क्षीणमनो भुवाम् ॥१७६॥ मनुष्यस्त्रियमाश्रित्य यद्येवं स्याद्विडम्बना । तर्हि को नाम दुरं कन्दर्प जेतुमीश्वरः ॥१७७॥ युग्मं।
केवल मन द्वारा ही विषय सेवन करने वाले, देवी का भी शरीर स्पर्श नहीं करने वाले तथा क्षीण कामी आनत आदि देवलोक के देव की मनुष्यनी (स्त्री) सम्बन्धी ऐसी विडम्बना होती है तो फिर ऐसे दुरि कामदेव को अन्य कौन जीत सकता है ? (१७६-१७७)