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(६२) . अथवा इस तरह संभव-उत्पन्न होता हैपूर्व सम्बन्थिनीं नारीमुपभुक्तां महीस्पृशा । कश्चित्सनत्कुमारादिदेवः प्रेम वशीकृतः ॥१६४॥ तदवाच्य प्रदेशे स्वमवाच्यांशं विनिक्षिपन् । परिष्वज्य मृतस्तस्या एव गर्भे समुद्भवेत् ॥१६५॥ .
किसी सनत्कुमारादि देव की अपने पूर्व सम्बन्ध वाली मनुष्य जीवन काल में भोगी हुई स्त्री के प्रति प्रेमातुर होकर उसके अवाच्य प्रदेश में अपन अवाच्य अंश को डालकर आलिगंन करते समय मृत्यु हो जाये तो वह उसी के ही गर्भ में उत्पन्न होता है। (१६४-१६५)
उत्कर्षतस्त्वधो यावत्पाताल कलशाश्रितम् । ... मध्यमीयं तृतीयांशं तत्र मत्स्यादि सम्भवांत् ॥६६॥ तिर्यक् स्वयंभूरमण पर्यन्तावधि सा भवेत् । ..
अच्युत स्वर्ग पर्यन्तमूवं सा चेति भाव्यते ॥१६७॥ - अब उनकी उत्कृष्ट अवगाहना नीचे पाताल कलश के बीच तीसरे भाग तक होती है, क्योंकि वहां मत्स्यादि का होना संभव है। तिरछा स्वयंभूरमण समुद्र के अन्तिम किनारे तक होता है और ऊँचा अन्तिम अच्युत देवलोक तक होता है। तथा उसकी भावना इस तरह से है। (१६६-१६७)
कश्चिदच्युतनाकस्थसुहद्देवस्य 'निश्रया । .... देवः सनत्कुमारादिर्गतस्तत्र म्रियेत यत् ॥१६८॥
कोई सनत्कुमारादि देव अच्युत देवलोक में रहने वाले किसी मित्र देव की निश्रा से वहां गया हो और वहां मृत्यु प्राप्त करे। (१६८)
सहस्रारान्त देवानां भावनीयानया दिशा । .. कनिष्टा च गरिष्टा च तैजसस्यावगाहना ॥१६६॥
सहस्रार देवलोक तक के देवों की जघन्य और उत्कृष्ट तैजस अवगाहना इसी तरह चिन्तन होता है। (१६६)
आनताद्यच्युतान्तानां देवानास्याजघन्यतः । अंगुलासंख्येय भाग परिमाणावगाहना ॥१७०॥
आनत देवलोक से लेकर अच्युत देवलोक तक के देवों की जघन्य तैजस अवगाहना एक अंगुल के असंख्यातवें विभाग के समान होता है। (१७०)