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________________ (६४) . तृतीयः सर्ग अथ संसारि जीवाना स्वरूपं वर्णयाम्यहम् । द्वारैः सप्तत्रिंशता तान्यमूनिस्युर्यथाक्रमम् ॥१॥ पूर्व में सिखात्मा का स्वरूप कहा अब मैं संसारी जीवों का स्वरूप सैंतीस द्वार से वर्णन करता हूँ। वे सैंतीस द्वार अनुक्रम से इस प्रकार हैं । (१) भेदाः स्थानानि पर्याप्तिः संख्ये योनि कुलाश्रिते। .' योनीनां संवृतत्वादि स्थिती च भव काययोः ॥२॥ देह संस्थानांगमान समुद्घाता गतागती । अनन्तराप्तिः समये सिद्धिर्लेश्या दिगाहृतो. ॥३॥ संहननानि कषायाः संज्ञेन्द्रिय संज्ञितास्तथा वेदाः। . दृष्टिानं दर्शनमुपयोगाहार गुण योगाः ॥४॥ मानं लघ्वल्प बहुता सैवान्या दिगपेक्षया । अन्तरं भव संवेधो महाल्प बहुतापि च ॥५॥ १- भेद, २- स्थान, ३- पर्याप्ति, ४- योनि संख्या, ५- कुल संख्या, ६योनियों का संवृतत्व आदि,७- भव स्थिति,८- काय स्थिति,६-देह, १०-संस्थान, ११- अंगमान, १२- समुद्घात, १३- गति, १४- आगति, १५- अनन्तराप्ति, १६समय सिद्धि, १७- लेश्या, १८-दिगाहार, १६- संघयण, २०- कषाय, २१- संज्ञा, २२- इन्द्रिय, २३- संज्ञित, २४- वेद, २५- दृष्टि, २६- ज्ञान, २७- दर्शन, २८उपयोग, २६- आहार, ३०- गुण, ३१- योग, ३२- मान, ३३- लघु अल्प बहुता, ३४- दिगाश्री अल्प बहुता, ३५- अन्तर, ३६- संवेध और ३७- महा अल्प बहुता। संसारी जीव का स्वरूप है । वह अनुक्रम कहते हैं । (२-५) भेदा इह प्रकाशः स्युर्जीवानां स्व स्व जातिषु । • समुद्घात निज स्थानोपपातः स्थानकं त्रिधा ॥६॥ प्रथम द्वार – 'भेद' अपनी अपनी जाति के विषय में जीव के जो प्रकार हैं उनका नाम भेद है। दूसरा द्वार 'स्थान' समुद्घात, निज स्थिति और उत्पत्ति इस तरह तीन प्रकार के स्थान कहलाते हैं । (६) पर्याप्ता व्यपदिश्यन्ते यामिः पर्याप्तयस्तु ताः । पर्याप्तापर्याप्त भेदादत एव द्विधांगिनः ॥७॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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