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________________ (६५) तीसरा द्वार पर्याप्त है। जिसको लेकर जीव पर्याप्त कहलाता है उसका नाम पर्याप्त है। इसी कारण ही प्राणि के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं । (७) पर्याप्तयः स्वयोग्या यैः सकलाः साधिताः सुखम्। पर्याप्त नाम कर्मानुभावात्पर्याप्त कास्तु ते ॥८॥ जिन्होंने अपने-अपने योग्य सर्व पर्याप्तियां साधन की हों वे पर्याप्त नाम कर्म के अनुभाव से पर्याप्त (सम्पूर्ण पर्याप्ति वाला) कहलाते हैं । (८) द्वि धामी लब्धि करण भेदात्त त्रादि मास्तु ये । समाप्य स्वार्ह पर्याप्तीमियन्ते नान्यथा ध्रुवम् ॥६॥ करणानि शरीराक्षादीनि निर्वर्तितानि यैः । ते स्युः करण पर्याप्ताः करणानां समर्थनात् ॥१०॥ - पर्याप्त दो प्रकार का है - लब्धि पर्याप्त और करण पर्याप्त । अपने योग्य पर्याप्तियों को सम्पूर्ण करके मरता है, सम्पूर्ण किए बिना नहीं मरता; उसकी लब्धि पर्याप्त है और जिसने अपनी शरीर इन्द्रिय आदि का करण निर्वत्तन किया है, अर्थात् सम्पूर्ण रूप में समर्थ किया है वह करण पर्याप्त है। (६-१०) अपर्याप्ता द्विधाः प्रोक्ता लब्ध्या च करणेन च । 'द्वयोर्विशेषं श्रृणुत भाषितं गणधारिभिः ॥११॥ असमाप्य स्वपर्याप्तीप्रिंयन्ते येऽल्पजीविताः । लब्ध्याते ते स्युर पर्याप्ता यथा निः स्वमनोरथाः ॥१२॥ निर्वतितानि नाद्यापि प्राणिभिः करणानि यैः । देहाक्षादीनि करणा पर्याप्तास्ते प्रकीर्तिताः ॥१३॥ अपर्याप्त भी दो प्रकार की है - लब्धि अपर्याप्त और करण अपर्याप्त । इन दोनों में अन्तर इस तरह है - जिसकी अल्प आयुष्यवाला होने के कारण निर्धन के मनोरथ के समान अपनी पर्याप्त पूर्ण किए बिना मृत्यु हो जाये वह लब्धि अपर्याप्त कहलाता है, और जो अपना शरीर तथा इन्द्रिय आदि करण सम्पूर्ण खिले (विकसित) बिना मृत्यु प्राप्त करते हैं उसका करण अपर्याप्त कहलाता है। (११ से १३) . नियन्तेऽल्पायुषो लब्ध पर्याप्ता इह येऽङ्गिनः । तेऽपि भूत्वैव करण पर्याप्तानान्यथा पुनः ॥१४॥ लब्धि अपर्याप्त वाला जीव अल्पायु में मृत्यु प्राप्त करता है, वह भी करण
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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