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(६३) ज्ञान वाले होने पर भी सर्व वर्ण- अक्षर से रहित, अवर्णनीय सिद्ध के जीवों की हम स्तुति करते हैं । (१६१)
इति सिद्धाः ॥ (इस तरह से सिद्ध का स्वरूप कहा) विश्वाश्चर्यद कीर्ति कीर्तिविजय श्री वाचकेन्द्रान्तिष द्राज श्री तनयोऽतनिष्ट विनयः श्री तेजपालात्मजः। काव्यं यत्किल तत्र निश्चित जगत्तत्त्व प्रदीपोपमे, सर्गो निर्गलितार्थ सार्थसुभगः पूर्णो द्वितीयः सुखम् ॥१६२॥
सारे जगत् को आश्चर्य में मशगूल करने वाली कीर्ति युक्त कीर्तिविजय उपाध्याय के अन्तेवासी-शिष्य, माता राजश्री और पिता तेजपाल के सुपुत्र, विनयविजय जी ने इस जगत् के तत्त्वों को प्रकाशित करने में दीपक समान काव्यग्रंथ रचना की है । उसके अन्दर से प्रगट हुए अनेक अर्थों के कारण मनहरण करने वाला दूसरा सर्ग निर्विघ्र समाप्त हुआ । (१६२)
___॥इति द्वितीयः सर्गः ॥